23 वर्ष तक सत्ता में रहने के बाद ट्यूनीशिया के शक्तिशाली व्यक्ति 74 वर्षीय जाइन एल अबीदीन बेन अली द्वारा अचानक और अव्याख्यायित ढंग से अपना देश छोडने की इस घट्ना का मध्य पूर्व और मुस्लिम विश्व के लिये दूरगामी परिणाम होने वाला है। जैसा कि इजिप्ट के एक विश्लेषक ने लिखा है, " प्रत्येक अरब नेता ट्यूनीशिया को भय से देख रहा है और प्रत्येक अरब निवासी ट्यूनीशिया को आशा और एकजुट्ता के साथ देख रहा है"। मैं इसे दोनों ही भावनाओं से देख रहा हूँ।
1970 तक स्वतंत्रता के पहले युग में अरब भाषी देशों में जल्दी जल्दी सरकारों को उखाड फेंका जाता था जब कि असंतुष्ट कर्नलों के राजधानी में प्रवेश करने की सूचना आती थी जो कि राष्ट्रपति के महल को घेर लेते थे साथ ही रेडियो स्टेशन भी और तत्काल एक नयी सत्ता की घोषणा कर देते थे। सीरिया में तो अकेले 1949 में ही तीन तख्ता पलट हुए।
समय के साथ शासन को भी स्वयं को सुरक्षित करना आ गया और उन्होंने खुफिया सेवाओं की चुस्ती , परिवार और कबीलों पर निर्भरता तथा उत्पीडन सहित अन्य तरीकों का प्रयोग कर ऐसा किया। चार दशक तक एक स्थिरता रही जो मजबूरी की स्थिरता थी। इसके कुछ ही दुर्लभ अपवाद रहे ( 2003 में इराक, गाज़ा में 2007) जब शासन का तख्ता पलट हुआ यहाँ तक कि ( 1985 में सूडान में ) नागरिक विद्रोह की मह्त्वपूर्ण भूमिका है।
यदि हम देखें तो सर्वप्रथम अल जजीरा ने अपने इस चयनित विषय पर अरब का ध्यान अत्यंत व्यापक रूप से खींचा और उसके बाद इंटरनेट ने। अल जजीरा की अत्यंत व्यापक और सामयिक सूचना के साथ इंटरनेट ने भी अनेक असाधारण गोपनीय रहस्य खोले। ( अभी हाल का विकीलीक्स का अमेरिका का कूट्नीतिक केबल का ढेर) इसके साथ ही इसकी भाँति के ही फेसबुक और ट्वीटर भी। इन सभी शक्तियों ने एक साथ ट्यूनीशिया में दिसम्बर महीने में इंतिफादा आरम्भ किया और अत्यन्त शीघ्र ही एक तानाशाह को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
यदि एक ओर मताधिकार से वंचित लोगों द्वारा अपने सुस्त, क्रूर और लोभी शासक को सत्ताच्युत करने के लिये उनकी प्रशंसा करनी चाहिये तो वहीं वहीं इस पूरी उथल पुथल के इस्लामवादी परिणामों के प्रति भी सचेत रहने की आवश्यकता है।
सबसे पहली चिंता ट्यूनीशिया स्वयं ही है। अपनी सभी भूलों के बाद भी बेन अली इस्लामवाद के विरुद्ध एक शक्तिशाली शत्रु बन कर खडे रहे जो कि न केवल आतंकवादियों से लडते रहे वरन ( 2002 के पूर्व के तुर्की में) विद्यालयों में और टेलीविजन स्टूडियो में भी जिहादियों से लडे। हालाँकि पूर्व आंतरिक मंत्री रहते हुए भी उन्होंने इस्लामवाद को हल्के ढंग से लिया और उन्हें सामान्य अपराधी माना न कि प्रतिबद्द विचारधारागत लोग। उन्होंने एक वैकल्पिक इस्लामी स्वरूप के विकास का प्रयास नहीं किया जो कि अब एक भारी भूल सिद्ध हो सकती है।
श्री बेन अली की सत्ता पलटने में ट्यूनीशिया के इस्लामवादियों की अत्यन्त कम भूमिका है लेकिन वे इस अवसर का लाभ उठाने का पूरा प्रयास करेंगे। निश्चित रूप से ट्यूनीशिया के मुख्य इस्लामवादी संगठन अनहदा के नेता ने 1989 के बाद पहली बार देश वापस लौटने की घोषणा की है। क्या अंतरिम राष्ट्रपति 77 वर्षीय फौवाद मेबाजा के पास सत्ता बनाये रखने की राजनीतिक विश्वसनीयनता है। क्या सेना पुराने लोगों को सत्ता में बनाये रख पायेगी? क्या उदारवादी शक्तियों में इतना सम्मिश्रण और दृष्टि है कि वे इस्लामवादी उभार की ओर से ध्यान हटा सकें?
दूसरी चिंता निकट के यूरोप को लेकर है जो कि पहले ही इस्लामवादी चुनौती का सामना कर पाने में अक्षम है। यदि अनहदा सत्ता में आकर अपना नेटवर्क फैलाता है , आर्थिक सहायता देकर और शायद निकट के यूरोप में शस्त्र की तस्करी करना आरम्भ करता है तो इससे वहाँ पहले से ही स्थित समस्याओं में और भी वृद्धि हो जायेगी।
तीसरी और सबसे बडी चिंता अन्य अरब भाषी देशों पर होने वाले इसके परिणाम की है। इस तेजी से बढते और अत्यन्त सरल दिखने वाले अपेक्षाकृत रक्तहीन तख्ता पलट से वैश्विक स्तर पर इस्लामवादियों को अपने यहाँ से तानाशाहों को भगाने की प्रेरणा मिल सकती है। उत्तरी अफ्रीका के अन्य सामुद्रिक रेखा के देश मोरक्को, अल्जीरिया, लीबिया और इजिप्ट इसी स्थिति में हैं और पूर्व में सीरिया, जार्डन और यमन भी इसी श्रेणी में आते हैं। श्री बेन अली ने जिस सऊदी अरब में शरण ली है वह भी इसी श्रेणी में आता है। पाकिस्तान को भी इसी श्रेणी में रख सकते है जहाँ शासन अयोग्य है। 1978-79 में हुई ईरानी क्रांति के विपरीत इसके लिये किसी करिश्माई नेता की आवश्यकता नहीं है। पूरे एक वर्ष तक किये गये प्रयास के उपरांत लाखों लोग सड्कों पर उतर गये और ट्यूनीशिया में तेजी से घट्नाक्रम पलटा जो कि सामान्य और पिछली बातों को ही बार बार दुहराने वाला था।
फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने तथाकथित रूप से लैटिन अमेरिका के तानाशाहों के बारे में कहा था, " वह हरामी है लेकिन हमारे हरामी है" यही बात बेन अली और अरब के अन्य शक्तिशाली लोगो पर भी लागू होती है लेकिन अमेरिका की नीति दुविधा में दिखती है। बराक ओबामा ने जिस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से घोषणा की है कि, " वह ट्यूनीशिया के लोगों के सम्मान और साहस की सराहना करते हैं" इसे इस रूप में पढा जायेगा कि यह अन्य हरामियों के लिये चुनौती है या फिर देर से ही सही जमीनी सच्चाई को अनुभव किया गया।
वाशिंग़टन विकल्पों पर विचार कर रहा है तो मैं प्रशासन से आग्रह करता हूँ कि वे दो नीतियाँ अपनायें। पहला, वर्ष 2003 में जार्ज डब्ल्यू बुश द्वारा आरम्भ की गयी लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को तेज करें लेकिन इस बार अत्यन्त सतर्कता , बुद्धिमानी से और गरिमा से क्योंकि इस तथ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है कि जल्दबाजी में गलत ढंग से इसका क्रियान्वयन करने से इस्लामवादियों के हाथ में अधिक शक्ति जाने का खतरा रहता है। दूसरा, इस्लामवाद को सभ्य समाज के लिये सबसे बडा शत्रु माना जाये और अपने सहयोगियों के साथ एकजुट्ता दिखायी जाये जिसमें ट्यूनीशिया में भी इससे लड्ने वाले शामिल हैं।
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