अब जबकि मिस्र में बहु सम्भावित संकट का समय आ पहुँचा है और समस्त मध्य पूर्व में विद्रोहियों ने सरकारों को झटका दिया है तो आज इस क्षेत्र में ईरान जितना अधिक केन्द्रबिंदु में आ गया है उतना पहले कभी नहीं था। इसके इस्लामवादी शासक इस क्षेत्र को अपने नियन्त्रण में लेते दिख रहे हैं। लेकिन क्रांति को आगे बढा पाना कठिन होता है और मेरी भविष्यवाणी है कि इस्लामवादी पूरे मध्य पूर्व में सफलता प्राप्त नहीं कर सकेंगे और तेहरान इस पूरे क्षेत्र में सत्ता निर्धारण का प्रमुख केंद्र नहीं बन सकेगा। इस निष्कर्ष के पीछे कुछ कारण हैं।
ईरानी क्रान्ति की प्रतिध्वनि; 1979 में सत्ता प्राप्ति के बाद अयातोला रुहोल्लाह खोमेनी ने इस इस्लामवादी विद्रोह को अन्य देशों में भी फैलाने का प्रयास किया था लेकिन उन्हें प्रायः हर जगह असलता ही प्राप्त हुई। तीन दशक गुजर जाने के बाद भी यह प्रतीत होता है कि ट्यूनीशिया के एक शहर में एक वेंडर के आत्मदाह के प्रयास के बाद वैसे ही क्रांति की ज्वाला भडक सकती है जैसी कि खोमेनी की इच्छा थी और जैसा कि ईरानी अधिकारी आज भी चाहते हैं।
मध्य पूर्व के शीत युद्ध का भाग : पिछले कुछ वर्षों से मध्य पूर्व एक क्षेत्रीय शीतयुद्ध की स्थिति में है जहाँ दो बडे गुट इस क्षेत्र पर प्रभाव स्थापित करने के प्रयास में लगे हैं। ईरानी नेतृत्व में एक प्रतिरोधी गुट जिसमें कि सीरिया, गाजा और कतर हैं। सऊदी नेतृत्व में यथस्थितिवादी गुट जिसमें कि मोरक्को, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मिस्र, पश्चिमी तट , जार्डन, यमन और फारस की खाडी के अमीरात शामिल हैं। यह बात ध्यान रखने की है कि इन दिनों लेबनान यथस्थितिवादी गुट से प्रतिरोधी गुट की ओर तेजी से जा रहा है और यह परिवर्तन केवल यथास्थितिवादी स्थानों पर हो रहा है।
इजरायल की विचित्र स्थिति: इजरायल के नेता पूरी स्थिति पर चुप हैं और इसकी अप्रासंगिकता से ईरान की केंद्रीय भूमिका का पता चलता है। यद्यपि इजरायल को ईरान के बढते प्रभाव से काफी अधिक डरने की आवश्यकता है लेकिन साथ ही इन घटनाओं से यह बात अधिक स्पष्टता से प्रमाणित होती है कि यह यहूदी राज्य इस क्षेत्र में स्थिरता का प्रायद्वीप है और मध्य पूर्व में पश्चिम का एकमात्र विश्वसनीय साथी है।
विचारधारा का अभाव: सरकारी संस्थानों के बाहर एकत्र हुए लोग जो कि ठहराव के विरुद्ध, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की माँग के साथ ,भ्रष्टाचार और उत्पीडन के विरुद्ध माँग कर रहे हैं उनमें मध्य पूर्व के समाज में आम तौर पर व्याप्त नारेबाजी और षडयंत्रकारी धारणाओं का अभाव दिखाई देता है।
सेना बनाम मस्जिद : वर्तमान घटनाक्रम से एक बात स्पष्ट है कि मध्य पूर्व के सभी 20 देशों में सशस्त्र बल और इस्लामवादी शक्तियाँ वर्चस्व रखती हैं , एक ओर जहाँ सशस्त्र बल मानव संसाधन की तैनाती करता है तो इस्लामवादी एक विचार प्रदान करते हैं। इसके कुछ अपवाद हैं जैसे कि विविधतावादी वामपंथ तुर्की में है, लेबनान और इराक में नस्लवादी गुट हैं, इजरायल में लोकतंत्र है, ईरान में इस्लामवादी नियंत्रण है लेकिन आम तौर पर उपर्युक्त रुझान ही पूरे क्षेत्र में है।
इराक: इस क्षेत्र का सबसे विस्फोटक देश इराक इस प्रदर्शन से बाहर है क्योंकि इस देश की जनसंख्या अब दशकों पुराने तानाशाही के शासन में नहीं है।
सेना का वर्चस्व बढेगा: इस्लामवादी आशा रखते हैं कि ईरान की भाँति वे जनविद्रोह का लाभ उठाकर सत्ता पर नियन्त्रण स्थापित कर सकेंगे। ट्यूनीशिया में जो कुछ भी हो रहा है उसका बारीक विश्लेषण करने की आवश्यकता है क्योंकि यह अन्य क्षेत्रों में भी दुहराया जा सकता है। ट्यूनीशिया में सेना को पता लग गया कि इस देश के शक्तिशाली व्यक्ति बेन अली अपने और अपनी पत्नी के अंधाधुंध भ्रष्टाचार के चलते जनता के मध्य अलोकप्रिय हो हये हैं और उनकी अलोकप्रियता के कारण उन्हें बचाये रख पाना सम्भव नहीं हो सकेगा इसलिये सेना ने उन्हें बाहर कर दिया और इसके बाद उनके और उनके परिवार की गिरफ्तारी के लिये अंतरराष्ट्रीय वारंट भी जारी करा दिया।
यह कर देने से पुरानी सरकार के सभी प्रमुख लोग सत्ता में बने रह गये और उसमें भी सेना के प्रमुख व्यक्ति सेना के प्रमुख राशिद अमार ने सत्ता के शीर्ष पर बेन अली का स्थान ग्रहण किया। पुराने लोगों को विश्वास है कि लोगों को अधिक नागरिक अधिकार और राजनीतिक अधिकार देकर सत्ता पर नियंत्रण स्थापित रहेगा क्योंकि यह जनता के लिये पर्याप्त होगा। यदि यह जुआ सफल रहा तो मध्य जनवरी की यह क्रांति केवल तख्तापलट बन कर रह जायेगी।
यही स्थिति अन्य स्थानों पर भी दुहराई जायेगी विशेष रूप से मिस्र में जहाँ कि 1952 से ही सैनिकों ने सरकार पर वर्चस्व स्थापित कर रखा है और मुस्लिम ब्रदरहुड के विरुद्ध सत्ता पर नियंत्रण स्थापित रखने के लिये 1954 से दमन की नीति भी अपनाई गयी। होस्नी मुबारक द्वारा ओमर सुलेमान को नियुक्त किये जाने से स्पष्ट है कि मुबारक परिवार का वर्चस्व समाप्त हो गया है और इस बात की सम्भावना है कि मुबारक सेना के शासन के पक्ष में पद त्याग दें।
अधिक व्यापक रूप में मैं इस बात पर शर्त लगाने को तैयार हूँ कि ट्यूनीशिया से जो माडल उभरा है वह किसी परिवर्तन के स्थान पर निरंतरता को ही आगे बढायेगा। शासन की कठोरता मिस्र में कुछ कम होगी लेकिन सेना सत्ता पर नियन्त्रण स्थापित करेगी।
अमेरिकी नीति: अमेरिकी सरकार की इस मायने में भूमिका मह्त्वपूर्ण हो जाती है कि मध्य पूर्व के देशों में तानाशाही के स्थान पर राजनीतिक सहभागिता का संक्रमणकाल इस प्रकार हो कि इस पूरी प्रक्रिया का लाभ इस्लामवादी न उठा पायें। जार्ज ड्ब्ल्यू बुश का वर्ष 2003 में विचार सटीक था जब उन्होंने लोकतंत्र की बात इस क्षेत्र के लिये उठाई थी लेकिन तत्काल परिणाम की अपेक्षा में उन्होंने इसे बर्बाद कर दिया। बराक ओबामा ने आरम्भ में तानाशाहों के साथ अच्छे सम्बन्ध की नीति को चलाया और अब वे पूरी तरह आंखें बंद कर मुबारक के विरुद्ध इस्लामवादियों का साथ दे रहे हैं। उन्हें बुश की तरह ही कार्य करना चाहिये लेकिन बेहतर ढंग से और यह समझना चाहिये कि लोकतन्त्रीकरण की प्रकिया दशकों की लम्बी प्रक्रिया है जिसमें चुनाव, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के शासन के विचारों से लोगों को अवगत कराना पडता है।