अब जबकि मिस्र में शासन विरोधी प्रदर्शन बढता जा रहा है इस बात की सम्भावना है कि नयी सरकार का नेतृत्व या तो मुस्लिम ब्रदरहुड के हाथ में होगा या फिर उसमें इसकी भूमिका होगी। इस सम्भावना के साथ ही अनेक लोग प्रश्न कर रहे हैं कि क्या इस्लाम लोकतंत्र से सुसंगत है। तो इसका उत्तर है कि हाँ और ऐसा सम्भव हो सकता है लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिये अधिक परिश्रम की आवश्यकता है।
वर्तमान स्थितियाँ उत्साहजनक नहीं हैं, क्योंकि अधिनायकवाद या तानाशाही आनुपातिक दृष्टि से मुस्लिम बहुसंख्या वाले देशों में कहीं अधिक है। स्वार्थमोर कालेज के फ्रेडरिक एल प्रेयोर ने वर्ष 2007 में मिडिल ईस्ट क्वार्टर्ली में निष्कर्ष निकाला था, " इस्लाम अत्यंत कम राजनीतिक अधिकारों के साथ जुडा है" इसी जर्नल में लिखते हुए सलीबा सरसार ने 17 अरब भाषी देशों में लोकतंत्र्रीकरण की प्रक्रिया पर नजर डालते हुए पाया कि ," वर्ष 1999 से 2005 के मध्य न केवल अनेक देशों में विकास की गति ठहर गयी वरन समस्त मध्य पूर्व में सुधार भी पीछे चला गया" ।
इस निराशजनक परिपाटी के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचना अत्यंत सरल है कि इस्लाम मजहब अपने आप में ही समस्या का कारण है। वास्तव में वर्तमान तानाशाही, भ्रष्टाचार, क्रूरता, उत्पीडन किसी विशेष ऐतिहासिक घटनाक्रम का परिणाम हैं न कि कुरान और अन्य पवित्र ग्रन्थों का ।
कोई आधा सहस्राब्दी पूर्व लोकतंत्र कहीं भी नहीं था इसने पश्चिमी यूरोप में अनेक कारणों से जन्म लिया जिसमें कि इस क्षेत्र की ग्रीको रोमन विरासत जो कि सीजर के समय तक रही और फिर ईसाइयत के अंदर आपसी तनाव, भौगोलिक स्थिति, जलवायु और साथ ही राजनीतिक दर्शन और तकनीक में कुछ मह्त्वपूर्ण सफलतायें। इनमें से कुछ भी ग्रेट ब्रिटेन और अमेरिका के भाग्य में नहीं था जो कि आज लोकतंत्र का नेतृत्व कर रहे हैं।
यदि इस बात को दूसरे ढंग से रखें तो निश्चित रूप से इस्लाम अपनी मूल भावना में अलोकतांत्रिक है तो क्या सभी पूर्व आधुनिक समाज और धर्म तो ऐसे ही थे।
जिस प्रकार ईसाइयत लोकतांत्रिक प्रकिया का अंग बनी वैसे ही इस्लाम भी बन सकता है। यह परिवर्तन अत्यंत पीडादायक और समय लेने वाला सिद्ध होगा। कैथोलिक चर्च का मध्ययुग में एक प्रतिक्रियावादी शक्ति से वर्तमान लोकतांत्रिक स्वरूप में विकास जो कि अभी तक जारी है पिछले 700 वर्ष से हो रहा है। जब रोम में स्थित एक संस्था को इतना समय लग सकता है तो फिर मक्का का एक मजहब जो कि अपने समस्या उत्पन्न करने वाले ग्रंथों से भरा पडा है उससे कैसे उम्मीद करते हैं कि यह प्रकिया अत्यंत शीघ्र और उलझन के बिना होगी।
इस्लाम में राजनीतिक सहभागिता को प्रोत्साहित करने की प्रकिया में इसके स्वभाव में बडा परिवर्तन अंतर्निहित है विशेष रूप से इसकी विधि संहिता शरिया जो कि अर्ध कबीलाई परिस्थिति में एक सहस्र्ताब्दी पहले वर्णित की गयी थी जो कि आज की स्थिति से पूरी तरह भिन्न स्थिति में लागू होती थी और इस पूरी संहिता में अनेक ऐसी विशेषतायें हैं जो कि आधुनिक समझदारी के हिसाब से अस्वीकार्य हैं जिसमें कि लोगों की इच्छा से बडा भगवान की इच्छा होने जैसा अलोकतांत्रिक विचार , सैन्य जिहाद को मुसलमानों के शासन के विस्तार के लिये वैधानिक तरीका माना जाना, गैर मुस्लिम के ऊपर मुस्लिम की श्रेष्ठता और साथ ही स्त्री के ऊपर पुरुष की श्रेष्ठता।
संक्षेप में शास्त्रीय रूप में शरिया को समझकर सामान्य तौर पर आधुनिक जीवन के साथ और विशेषकर लोकतंत्र के साथ मिलाकर नहीं चलाया जा सकता। मुसलमानों के लिये राजनीतिक सहभागिता प्राप्त करने का अर्थ है या तो इस विधि के सार्वजनिक सन्दर्भ को पूरी तरह अस्वीकार करना जैसा कि अतातुर्क ने किया या फिर इसकी पुनर्व्याख्या करना। सूडान के विचारक मोहम्मद मोहम्मद तहा ने पुनर्व्याख्या का उदाहरण तब दिया जब उन्होंने इसे फिर से पढा और खतरनाक इस्लामी कानूनों को थोक भाव में समाप्त किया।
इस्लाम भी बदलता रहता है इसलिये यह समझना गलत होगा कि मजहब को सदैव वैसा ही रहना चाहिये जैसा वह था। काइरो विश्वविद्यालय के हसन हनाफी ने इसे इस प्रकार कहा, "कुरान एक सुपरमार्केट है जहाँ से जिसे जो चाहिये वह उठा लेता है और जो नहीं चाहिये वह छोड देता है"
अतातुर्क और तहा को अलग कर दें तो मुसलमानों ने शायद ही इस्लाम को आधुनिक बनाने के लम्बे और कठिन मार्ग का आरम्भ भी कभी किया हो। सातवीं शताब्दी की व्यवस्था को पूरी तरह बदल कर उसे इक्कीसवीं सदी के पश्चिम प्रभावित सिद्धान्तों के अनुकूल बनाने के बजाय आज का इस्लामवादी आंदोलन जो कि मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करता है वह उसे लोकतंत्र से दूसरी ही दिशा में धकेल रहा है। इसके बजाय यह शरिया को पूरी तरह पुनर्जीवित करने के लिये और पूरी कठोरता से लागू करने के लिये संघर्ष कर रहा है भले ही बहुसंख्यक समाज जो भी चाहे।
कुछ इस्लामवादी लोकतंत्र को विद्रोही और इस्लामी मूल्यों के साथ विश्वासघात घोषित करते हैं लेकिन जो उनमें चतुर हैं वे अपनी व्यापक लोकप्रियता को देखते हुए लोकतंत्र का प्रयोग सत्ता प्राप्ति के साधन के रूप में करते हैं। तुर्की मे उनकी सफलता के बाद इस्लामवादी लोकतंत्रवादी नहीं बन गये हैं वरन इससे उनकी इच्छा प्रदर्शित होती है कि वे कोई भी रणनीति अपनाकर सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं।
वैसे पर्याप्त प्रयास और समय के बाद मुसलमान भी उसी प्रकार लोकतांत्रिक हो सकते हैं जैसे कि पश्चिमी। लेकिन अभी तो वे लोगों में बहुत कम लोकतांत्रिक है और इस्लामवादी आंदोलन लोगों की राजनीतिक सहभगिता में सबसे बडी बाधा है। मिस्र सहित अन्य स्थानों को लेकर मेरी सैद्धांतिक आशावादिता वर्तमान और भविष्य की अनेक वास्तविकताओं की निराशावादिता से आच्छादित है।