National Interest के जुलाई\ अगस्त अंक में नेशनल डिफेंस विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन के सहायक प्रोफेसर पाल डी मिलर ने "The Fading Arab Oil Empire" नामक अपने विचारोत्तेजक और शानदार लेख में तर्क दिया है कि
मध्य पूर्व के भूरणनीतिक मह्त्व को काफी बढा चढाकर प्रस्तुत किया गया है। इस क्षेत्र का मह्त्व अमेरिका के लिये केवल इसलिये अधिक है कि इसका विश्व के तेल बाजार में प्रभाव है लेकिन अब एक पीढी से यह प्रभाव शनैः शनैः ढलान की ओर है जिस तथ्य की उपेक्षा अधिकाँश बाहरी समीक्षकों द्वारा की गयी है।
वे इस समर्थन में एक बुद्धिमत्तापूर्ण तर्क देते हैं कि तेल का मह्त्व कम हो रहा है और अब मध्य पूर्व तेल उत्पादन में प्रतिस्पर्धात्मक लाभ की स्थिति में नहीं है और इस आधार पर उनका निष्कर्ष है कि
अगले दो दशक या अधिक तक विश्व के तेल बाजार और मध्य पूर्व की भूराजनीतिक स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आयेगा और आज की तुलना में इसकी स्थिति अधिक सामान्य रह जायेगी। इस घटनाक्रम की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। यह शक्ति संतुलन के सम्बंध में बडा परिवर्तन होगा और यह इतना बडा केंद्रीय घटनाक्रम होगा जो कि सोवियत संघ के पतन से कुछ ही कम होगा। यह मध्य पूर्व के तेल साम्राज्य का धीरे धीरे हो रहा पतन है।
मिलर लेखन में अंतर्निहित है कि वाशिंगटन को अपनी नीतियों का निर्धारण इन्हीं के अनुरूप ढालने का प्रयास आरम्भ कर देना चाहिये ताकि ये वास्तविकता उसमें परिलक्षित हो ।अब यह मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में विशेष शासन के उत्थान और पतन को लेकर शिथिल हो सकता है……. विश्व के ऊर्जा बाजार की बदलती वास्तविकता का अर्थ यह नहीं है कि अमेरिका को मध्य पूर्व की उपेक्षा करनी चाहिये या फिर वह ऐसा कर सकता है। निश्चित रूप से इजरायल की सुरक्षा और ईरान का व्यवहार नीतिनिर्धारकों को इस क्षेत्र पर ध्यान देने को विवश करता रहेगा। लेकिन वर्तमान वैश्विक परिस्थिति के चलते अमेरिका का अधिक दाँव पर अन्य क्षेत्रों विशेषकर एशिया और यूरोप में लगा है।
यह तर्क अनेक तथ्यों का विरोधाभाषी है। पहला, National Interest के जुलाई \ अगस्त अंक की पत्रिका टूटे ध्वज के साथ इस अग्रलेख साथ है "Requiem for the Two-State Promise: Israel Tightens Its Grip on the Occupied Lands," यही अपने में मिलर के तर्क को ध्वस्त करता है। अरब इजरायल संघर्ष के साथ जो भावना जुडी है उसका दूर दूर तक तेल से कोई सम्बंध नहीं है। डरबन में 2001 में जो इजरायल विरोधी शक्तियाँ एकत्र हुई और AIPAC के नीतिगत सम्मेलन में जो इजरायल समर्थक लोग प्रत्येक बसंत में एकत्र होते हैं वे लोग अपने विचारों का शून्य प्रतिशत भी तेल, गैस या अन्य हाइड्रोकार्बन पर नहीं व्यय करते।
दूसरा, आज के विश्व में इस्लामवाद ही एकमात्र ऊर्जावान अपने स्वप्न की अधिनायकवादी विचारधारा अस्तित्वमान है और इसका मूल उत्स अधिकतर मध्य पूर्व में है जिसने कि सभ्यतागत खतरा प्रस्तुत कर दिया है जिसका सम्बंध किसी प्रकार तेल से है( वित्त के साथ ही इस्लामवाद की शक्ति भी कम होगी)
तीसरा, यह क्षेत्र बसे हुए विश्व के केंद्र में है , खतरों से भरा है , जिसमें कि उत्पीडन , हिंसा, जनसंहारक हथियारों का खतरा और युद्ध हैं। ये सभी तथ्य समुद्री रेखा की सुरक्षा से शरणार्थी की समस्या को लेकर घरेलू सुरक्षा व्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं ( दूसरे तथ्य को जानने के लिये व्हाइट हाउस के आस पास एक चक्कर लगाना उचित होगा) । केवल मध्य पूर्व में सभी देश लुप्त होने के खतरे से भरे हैं। अनेक देश अराजकता की स्थिति में हैं जिनमें अफगानिस्तान,इराक, लेबनन, सोमालिया और लीबिया शामिल हैं।
इन कारणों के चलते मुझे मिलर की इस सलाह पर संशय होता है कि अमेरिका के नीतिनिर्धारक , " मध्य पूर्व और उत्तरीअफ्रीका के विशेष शासन के उत्थान पतन की ओर शिथिल होकर देखें" । निकट भविष्य में सुना जायेगा।