वर्ष 1880 में एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ जो कि इस्लाम पर अभी तक का सबसे महत्वपूर्ण अध्ययन माना जाता है। हंगरी के एक युवा यहूदी लेखक इग्नाज गोल्दजिहर ने जर्मन में इस पुस्तक को लिखा और इसे शीर्षक दिया Muslim Studies(Muhammedanische Studies) इसमें तर्क दिया गया कि जिस हदीथ को इस्लामिक पैगम्बर के कथन और कार्य का संग्रह माना जाता है वास्तव में उसकी ऐतिहासिक मान्यता नहीं है। मोहम्मद के जीवन के सम्बंध में विश्वसनीय रूप से विस्तारपूर्वक बताने के स्थान पर गोल्दजिहर ने इस बात को स्थापित किया कि हदीथ का आविर्भाव इस्लाम के स्वभाव को लेकर हुए बहस से दो या तीन शताब्दियों बाद हुआ।
( यह वैसे ही है जैसे कि आज अमेरिका के लोग संविधान के सर्वाधिक विवादित द्वितीय संशोधन पर बहस कर रहे हैं जिसमें कि शस्त्र धारण करने के अधिकार को लेकर चिन्ता है और इसका दावा हाल में प्राप्त जार्ज वाशिंगटन और थामस जेफरसन के मौखिक वार्तालाप पर आधारित है । निश्चय ही उनके उद्धरण हमें यह नहीं बतायेंग़े कि 225 वर्ष पूर्व क्या हुआ वरन आज की वर्तमान स्थिति के बारे में बतायेंगे)
गोल्दजिहर के दिनों से ही विद्वान उसी आधार पर कार्य करते आये हैं और इस्लाम के आरम्भिक दिनों के इतिहास में गहराई से प्रवेश करते हैं और उसके प्रत्येक पहलू का अध्ययन करते हैं जो कि मोहम्मद के जीवन से सम्बंधित प्रत्येक वर्णन पर विवाद उत्पन्न करता है जिसके बारे में परम्परागत तौर पर माना जाता है कि उनका जन्म 570 ईसवी में हुआ , 610 ईसवी में पहली बार उन्हें दैवीय संदेश मिला , 622 में मदीना का युद्ध हुआ और 632 में उनकी मृत्यु हो गयी। परंतु बार बार दुहराया जाने वाला यह इतिहास विशेषज्ञों के मध्य एक लगभग रह्स्य बना हुआ है। उदाहरण के लिये पैट्रिसिया क्रोन और माइकल कुक जिन्होंने कि एक शोधपत्र की भूमिका के रूप में Hagarism (Cambridge University Press, 1977) लिखा था जिसे कि जानबूझकर ऐसा लिखा गया था कि अपने संदेश को छुपाया जा सके।
हालाँकि अब दो विद्वानों ने टाम हालैण्ड ने In the Shadow of the Sword (Doubleday) और राबर्ट स्पेंसर ने Did Muhammad Exist? से इस रहस्य को अलग अलग रूप में समाप्त कर दिया है। जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है कि स्पेंसर अधिक साहसी लेखक हैं इस कारण मेरा ध्यान इसी पर होगा।
एक अत्यंत अच्छी तरह लिखी गयी , सौम्य और स्पष्ट लेखा जोखा से वे इस बात से आरम्भ करते हैं और प्रदर्शित करते हैं कि मोहम्मद के जीवन , कुरान और आरम्भिक इस्लाम के सम्बंध में परम्परागत रूप से जो माना जाता है उसमें असंगतता और रहस्य हैं। उदाहरण के लिये जहाँ कुरान इस बात पर जोर देता है कि मोहम्मद ने चमत्कार नहीं किये थे तो वहीं हदीथ ने उन्हे असाधारण शक्तियों वाला बताया है जिसमें कि भोजन को द्विगुणित कर देना, घायल को ठीक कर देना , आकाश और धरती से जल निकाल देना और यहाँ तक कि अपने स्वर्ण से प्रकाश भेजना। यह सब क्या है? हदीथ का दावा है कि मक्का एक महान व्यापारिक शहर था लेकिन ऐतिहासिक आँकडे ऐसी किसी बात की पुष्टि नहीं करते।
आरम्भिक इस्लाम के गुण वाली ईसाई गुणवत्ता भी कोई कम अचरज भरी नहीं है विशेष रूप से " ईसाई पाठ के अंश जो कि कुरान की ही भाँति हैं" । यदि सही रूप से देखा जाये तो ये अंश एक तरह से असमंजस वाले वाक्याँशों को और स्पष्ट करते हैं। परम्परागत रूप से आयत 19:24 को यदि पढा जाये मेरी मूर्खतापूर्ण ढंग से सुनती है कि उन्होंने जीसस को जन्म दिया है , " दुखी मत हो ईश्वर ने तुम्हारे नीचे एक नदी रख दी है" इसे अभ्यासवादी इस रूप में अधिक बुद्धिमत्तापूर्ण बनाते हैं और ( पवित्र ईसाई भी) " दुखी मत हो तुम्हारे ईश्वर ने तुम्हारी सन्तान को जन्म देने को नैतिक और विधिक बना दिया है" " रात्रि की शक्ति" जैसी उलझन भरी आयत जो कि मोहम्मद के प्रथम दैवीय संदेश को समर्पित है वह उस समय समझ में आती है जब कि क्रिसमस को समझाया जाता है। आश्चर्य ढंग से कुरान का अध्याय 97 लोगों को चर्च में ईश्वर के साथ सम्मिलन में आमन्त्रित करता है।
इस ईसाई आधार पर निर्मित होने के कारण अभ्यासवादी आरम्भिक इस्लाम के एकदम नये क्रांतिकारी स्वरूप को सामने ला रहे हैं। इस बात का ध्यान रखते हुए कि सातवीं शताब्दी के सिक्के और अभिलेख कहीं भी मोहम्मद, कुरान या इस्लाम का उल्लेख नहीं करते वे इस बात के साथ समाप्त करते हैं कि नये मजहब का उदय मोहम्मद की कल्पना की गयी मृत्यु से 70 वर्ष से पूर्व नहीं होगा। स्पेंसर ने पाया है कि "पहले दशक की अरब विजय प्रदर्शित करती है कि विजेता इस्लाम को साथ लेकर नहीं चल रहे थे जैसा कि हम इसे जानते हैं वरन यह विस्तृत सम्प्रदाय था ( हगारी जो कि अब्राहम और इस्माइल पर ध्यान केंद्रित रखते थे) और कुछ अंशों में ईसाइयत और यहूदियत के साथ इनके सम्पर्क थे" । अत्यंत संक्षेप में: " इस्लामी परम्परा के मोहम्मद का कोई अस्तित्व नहीं है और यदि वह है भी तो वह पूरी तरह उससे भिन्न है जैसा कि परम्परा में उसे प्रस्तुत किया गया है" जो कि अरब का ईसाई त्रिशक्ति विरोधी नेता था।
केवल 700 ईसवी के आसपास जब अब के विशाल अरब साम्राज्य के शासकों ने अनुभव किया कि उन्हें एकता के लिये एक राजनीतिक दर्शन की आवश्यकता है तो शायद वे इस्लाम मजहब के इर्द गिर्द एकत्र हुए। इस उद्यम में सबसे मह्त्वपूर्ण भूमिका इराक के क्रूर राज्यपाल हज्जाज इब्न युसुफ ने निभाई । स्पेंसर लिखते हैं कि इस बात में कोई आश्चर्य नहीं है कि इस्लाम " एक शक्तिशाली राजनीतिक मजहब है" जिसमें कि प्रमुख रूप से योद्धा और साम्राज्यवादी विशेषतायें हैं। इस बात पर भी आश्चर्य नहीं है कि यह आधुनिकता से अधिक संघर्ष करता है।
अभ्यासवादियों का यह कार्य कोई आलसी अकादमिक कसरत भर नहीं है वरन जैसे 150 वर्ष पूर्व यहूदियत और ईसाइयत को उच्च स्तरीय आलोचना का सामना करना पडा था जिसने कि आस्था के समक्ष ऐसी चुनौती खडी की जो कि अभी तक सँभाली नहीं जा सकी है । यह इस्लाम को कम साहित्यिक और दार्शनिक मजहब सिद्ध करेगा और जिसका कि इस्लाम के सम्बंध में लाभ भी होगा जो कि अब भी सर्वोच्चता और बलात के सिद्धांत से प्रेरित है। इस बात के लिये करतल ध्वनि हो कि Did Muhammad Exist ? का प्रमुख मुस्लिम भाषाओं में अनुवाद होगा और इंटरनेट पर इसे निशुल्क रखा जायेगा। तो क्या क्रांति का आरम्भ हो सकता है?