मिडिल ईस्ट मीडिया एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट (MEMRI) के हाल के अध्ययन An Escalating Regional Cold War में यिगाल कार्मोन और उनके तीन अन्य सहयोगियों ने तर्क दिया है कि "21वीं सदी में मध्य पूर्व को समझने के लिये आवश्यक है" शीत युद्ध है को समझा जाये।
उन्होंने पहचान की है कि मीडिया ने उस बडे संघर्ष पर अधिक ध्यान नहीं दिया है और जो कि महमूद अहमदीनेजाद के फिर एक बार ईरान के राष्ट्रपति बन जाने के बाद अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया है।
मेरियम वेबस्टर शब्दकोष के अनुसार शीत युद्ध , " ऐसा विचारधारगत संघर्ष है जिसे उस तरीके से लम्बे समय तक जारी रखा जाता है कि प्रायः प्रत्यक्ष सैन्य संघर्ष से कम और बिना कूटनीतिक सम्बंध तोडे यह चलता रहे"
शीत युद्ध का सबसे शास्त्रीय उदाहरण निश्चित रूप से 1945 से 1991 के मध्य अमेरिका और सोवियत संघ है जो कि लम्बे समय तक चला और वैश्विक स्तर पर दोनों आमने सामने रहे। 1958 से 1970 के मध्य अरब शीत युद्ध छोटा और स्थानीय स्तर का रहा और यह दूसरा उल्लेखनीय उदाहरण है। इस मामले में मिस्र के क्रांतिकारी गमाल अब्दुल नसीर ने क्षेत्र में आमूल चूल परिवर्तन का प्रयास किया जबकि सउदियों ने यथास्थिति बनाये रखने का प्रयास किया। उनके संघर्ष की परिणति 1962 से 1970 के यमन युद्द में हुई और यह संघर्ष अब्दुल नसीर की मृत्यु के बाद ही समाप्त हुआ।
एक नया विचारधारागत विभाजन इस क्षेत्र को अलग अलग खेमों में बाँट रहा है जिसे कि मैंने मध्य पूर्व के शीत युद्ध का नाम दिया है। इसके आयामों के आधार पर दो खेमों के मध्य धीरे धीरे बढते संघर्ष की व्याख्या की जा सकती है।
- क्रांतिकारी खेमा और इसके सहयोगी: ईरान सीरिया, कतर , ओमान तथा दो संगठनों हिजबुल्लाह और हमास का नेतृत्व कर रहा है। तुर्की एक अतिरिक्त महत्वपूर्ण घटक है। इराक इनके मध्य कहीं है। विडम्बना यह है कि इनमें से अधिकतर देश गैर क्रांतिकारी माने जाते हैं।
- यथास्थिति खेमा: सउदी अरब के नेतृत्व में मिस्र, जार्डन , लेबनान , ट्यूनीशिया , अल्जीरिया , मोरक्को तथा अधिकतर अरब भाषी राज्य और फतह संगठन इसमें शामिल हैं। इजरायल इनमें अतिरिक्त महत्वपूर्ण भूमिका में है। यह बात ध्यान देने की है कि मिस्र जो कि कभी स्वयं खेमे का नेतृत्व कर रहा था वह अब सउदी अरब के साथ सहयोगी नेतृत्वकर्ता है इससे पता चलता है कि पिछली आधी सदी में कैरो का प्रभाव किस प्रकार घटा है। कुछ अन्य राज्य जैसे लीबिया किनारे पर हैं।
वर्तमान शीत युद्ध का आरम्भ 1979 में हुआ था जब अयातोला खोमैनी ने तेहरान में सत्ता प्राप्त कर ली थी और क्षेत्र में अन्य राज्यों को अस्थिर कर अपने क्रांतिकारी इस्लाम को उन पर थोपने की विशाल महत्वाकाँक्षा पाल ली। यह महत्वाकाँक्षा 1989 में खोमैनी की मृत्यु के बाद समाप्त हो गयी परंतु 2005 में अहमदीनेजाद के राष्ट्रपति बनने के उपरांत इस महत्वाकाँक्षा को जनसंहारक हथियारों के निर्माण , विस्तृत आतंकवाद , इराक में रुचि और बहरीन पर दावे से पुनर्जीवन मिला ।
मध्य पूर्व में शीतयुद्ध के अनेक परिणाम आये हैं उनमें से चार यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
(1) 2006 मे जब हिजबुल्लाह ने इजरायल रक्षा सेना से युद्ध किया तो अनेक अरब देशों ने सार्वजनिक रूप से हिजबुल्लाह की इस " अनपेक्षित , अनावश्यक और गैरजिम्मेदार कार्य" के लिये आलोचना की। ईरान के एक समाचार पत्र ने इसकी प्रतिक्रिया में , " सउदी न्यायालय के मुफ्ती को शाश्वत रूप ए अभिशप्त किया साथ ही मिस्र के फराओ को भी"
(2) मार्च 2009 में मोरक्को की सरकार ने घोषणा की कि वह तेहरान से अपने कूटनीतिक सम्बंध इस आधार पर तोड रही है कि , " वह राज्य के आंतरिक मामलों में असहनीय हस्तक्षेप कर रहा है" इसका अर्थ है कि ईरान द्वारा सुन्नी लोगों को इस्लाम के शिया स्वरूप में मतांतरित करने का प्रयास।
(3) मिस्र की सरकार ने अप्रैल में हिजबुल्लाह के 49 एजेंटों को गिरफ्तार किया और उन पर आरोप था कि वे मिस्र को अस्थिर करना चाहते थे बाद में हिजबुल्लाह के नेता हसन नसरूल्लाह ने स्पष्ट किया कि गुट के नेता ने उनके लिये कार्य किया था।
(4) तुर्की और इजरायल के घनिष्ठ सम्बंध खराब हुए है जबकि अंकारा का प्रत्यक्ष इस्लामवादी नेतृत्व इजरायल सरकार की नीतियों का विरोध करता है, यहूदी राज्य के विरुद्ध शत्रुवत भाषा का प्रयोग करता है, इसके शत्रुओं को अंकारा निमंत्रित करता है, ईरान के शस्त्र हिजबुल्लाह को हस्तान्तरित करता है तथा तुर्की की सेना को अलग थलग करने के लिये इजरायलवाद विरोध का प्रयोग करता है।
निकट भविष्य में न समाप्त होते दिख रहे अरब इजरायल संघर्ष की ओर से भावना हटाकर मध्य पूर्व का शीत युद्ध तनाव को कम करता दिख रहा है। हालाँकि मामला यह नहीं है। हालाँकि फतह और हमास के मध्य सम्बंध कितना की कटु क्यों न हो और एक दूसरे को मार रहे हों परंतु अंत में वे दोनों ही इजरायल के विरुद्ध एकजजुट हो जायेंगे। इसी प्रकार वाशिंगटन को ईरान के मुकाबले सउदी अरब या इसके खेमे के किसी सदस्य का महत्वपूर्ण समर्थन नहीं मिलेगा। अंत में मुस्लिम राज्य साथी मुस्लिम के विरुद्ध किसी गैर मुस्लिम राज्य के साथ जाने से कतराते हैं।
यदि अधिक विस्तार में देखें तो मध्य पूर्व का शीत युद्ध कभी स्थानीय मुद्दे रहे मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दे देगा जैसे कि मोरक्को के लोगों का मजहबी जुडाव जिसके कि मध्य पूर्व में व्यापक परिणाम होंगे। तो यह शीत युद्ध विश्व के सबसे अस्थिर क्षेत्र में नये संघर्ष के बिंदु तथा अधिक विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर देगा।