मिस्र इस सप्ताह उस घटना की साठवीं वर्षगाँठ मना रहा है कि जब स्वघोषित फ्री आफिसर्स ने राजा फारूख की संवैधानिक राजशाही को उख़ाड फेंका था और साथ ही पहली वर्षगाँठ मना रहा है कि जब कोई सैन्य अधिनायकवाद के समाप्ति की बात सोच सकता है जिसने कि वर्षों तक देश को घाव दिये। दुख तो इस बात का है कि इसके स्थानापन्न से तो और भी बुरा शासन आयेगा।
राजशाही का काल अनेक भूलों से भरा था जिसमें कि अन्यायपूर्ण आय के स्तर से हिंसक आंदोलन तक (उनमें सबसे अग्रणी मुस्लिम ब्रदरहुड था) परंतु यह युग आधुनिकता, बढती अर्थव्यवस्था साथ ही विश्व में बढते प्रभाव का था। उद्योग आरम्भ हुये, महिलाओं ने अपने सिर ढँकने छोड दिये और मिस्र की नरम शक्ति का अरब भाषी देशों में व्यापक प्रभाव था। तारिक ओस्मान ने अपनी शानदार कृति Egypt on the Brink: From Nasser to Mubarak ( येल) में इस समय को याद करते हुए , " उदारवादी, आकर्षण से युक्त और विभिन्न संस्कृतियों के समागम से भरा कहा है"
जनरल और कर्नल का निराशावादी शासन 23 जुलाई 1952 को महत्वाकाँक्षी गमाल अब्दुल नासिर ( 1954 से 70 तक शासन किया) से आरम्भ हुआ। उनके उपरांत वैभवशाली अनवर अल सादात ( 1970 से 81 तक) ने शासन किया और उसके उपरांत शानदार हुस्नी मुबारक ( 1981 से 2011 ) का शासन रहा। इन तीनों में से सबसे बुरे नसीर थे जो कि पूँजीवादी विरोधी शक्तियों और साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों के इशारों पर नाचते थे: उनके शासन में व्यक्तिगत सम्पत्ति को जब्त किया गया और अनेक विदेशी धरती पर सैन्य हस्तक्षेप हुए ( इजरायल के विरुद्ध सीरिया और यमन में )इसकी कीमत अब तक देश को चुकानी पड रही है।
यह शासन धोखे से भरा था। सेना मुफ्ती की भेष में आ गयी और यहाँ तक कि सेना की पहुँच अर्थव्यवस्था , सुरक्षा सेवाओं और विधायिका तक हो गयी। सीरिया के साथ एकता ने कटु शत्रुता को छुपा लिया। इस्लामवादियों के विरुद्ध दिखाने की प्रतिद्वंदिता ने लूटपाट को लेकर हो रही स्पर्धा को छुपा लिया। इजरायल के साथ शांति ने अन्य ढंग से चल रहे युद्ध पर पर्दा डाल दिया।
सेना के नीचे लम्बे, पीडादायक और पीछे की ओर ले जाने वाले शासन के चलते मिस्र सभी अर्थपूर्ण सूचकाँक के पैमाने पर पिछड गया फिर वह जीवन स्तर हो या कूटनीतिक प्रभाव हो और तो और जनसंख्या का विस्तार चार गुना 20 मिलियन से 83 मिलियन हो गया तथा इस्लामवादी विचारधारा पोषित हुई। ओस्मान के अनुसार 1952 में मिस्र और दक्षिण कोरिया सामाजिक और आर्थिक स्तर पर समान थे परंतु अब मिस्र काफी पीछे चला गया है। उन्होंने लिखा है कि किस प्रकार, " सैनिकों के शासन में समाज ने प्रगति नहीं की बल्कि यह वास्तव में अनेक मोर्चों पर पिछड गया" । उनकी खोज है कि 1952 से, " निर्माण न हो सकने वाली क्षति और राष्ट्रीय पराजय का व्यापक भाव देश में व्याप्त है" । फुटबाल के खेल से कविता तक हर स्तर पर पराजय का भाव है।
अपनी सत्ता के 30वें वर्ष में फराओ मुबारक ने अतिआत्मविश्वास के चलते अपने सेना के सहयोगियों को किनारे लगाने का निश्चय किया। उन्होंने और धन एकत्र किया जिसका अर्थ था कि अपने अधिकारियों को इसके अंश से वंचित रखना ( अपनी पत्नी के दबाव में) और किसी सेना के अधिकारी के स्थान पर अपने बैंकर पुत्र गमाल को अपना उत्तराधिकारी राष्ट्रपति बनाने का निर्णय लिया।
आक्रोशित जनरल अधिकारियों ने अपने समय की प्रतीक्षा की । 2011 के आरम्भ में जब साहसी, सेक्युलर और आधुनिक युवकों ने तहरीर चौक पर उत्पीडन के विरुद्ध अपना धैर्य खोने की घोषणा की तो सेना ने उनका दोहन कर मुबारक को सत्ता से हटा दिया। उदारवादियों को लगा कि वे विजयी हो गये परंतु उनका प्रयोग किया गया था और सेना ने इन्हें उपकरण बनाकर अपने स्वामी को किनारे लगा दिया। अपने उद्देश्य में सफल होने के बाद उदारवादियों को शांत करा दिया गया और अधिकारी व इस्लामवादी लूट की प्रतिस्पर्धा में लग गये।
यही वर्तमान स्थित है : द सुप्रीम काउंसिल आफ आर्म्ड फोर्सेस अभी भी देश को चला रहा है, मुस्लिम ब्रदरहुड इसे किनारे करना चाहता है। इनमें कौन सी अधिनायकवादी शक्ति विजयी होगी? मेरी दृष्टि में 80 प्रतिशत सम्भावना है कि सुप्रीम काउंसिल आफ आर्म्ड फोर्सेस विजयी होगी इसका अर्थ हुआ कि इस्लामवादी तभी विजय प्राप्त कर सकते हैं जब वे पर्याप्त प्रतिभा का प्रदर्शन करें। सुप्रीम काउंसिल आफ आर्म्ड फोर्सेस ने मुस्लिम ब्रदरहुड के सबसे करिश्माई नेता खैरात अल शातेर को संदिग्ध तकनीकी आधार पर किनारे लगा दिया है ( मुबारक शासन में उन्हें कारावास होना) । इससे कम क्षमतावान मोहम्मद मोर्सी ब्रदरहुड के नेता हैं और देश के नये राष्ट्रपति हैं। उनके पहले कुछ सप्ताह से यही प्रतीत होता है कि वे दबे दबे से हैं और सुप्रीम काउंसिल आफ आर्म्ड फोर्सेस के अयोग्य लोगों से भी वे संघर्ष नहीं करना चाहते।
अब जबकि मिस्र के लोग सेना द्वारा सत्ता पर नियंत्रण स्थापित होने के 60 वर्ष पूरे कर रहे हैं तो आगे देखने के लिये उनके पास काफी कम सम्भावना है। इतना तो है कि 23 जुलाई को वे उल्लास मना सकते हैं कि वे इस्लामवादी शासन की पहली वर्षगाँठ तो नहीं मना रहे हैं। लोभी सैनिकों से तो बेहतर इस्लामवादी विचारकों का नियंत्रण है ।
परंतु मिस्र और उनके बाहर के समर्थक बेहतर होने की अपेक्षा रखते हैं। तहरीर चौक पर एकत्र हुए उदारवादी देश की एकमात्र आशा हैं और पश्चिम के एकमात्र सहयोगी उनका समर्थन किया जाना चाहिये। भले ही वे शासन के गलियारे से दूर हों परंतु उनका उभार साठ वर्षों के उत्पीडन और पराभव को दूर करने की औषधि है।