हिटलर के उपरांत तानाशाहों का तुष्टीकरण करने की नीति की विंस्टन चर्चिल ने खिल्ली उडाई थी और इसे मगरमच्छ को पालने के बराबर माना था वह भी आशा के साथ कि एक दिन वह वह हमें ही खा जायेगा, वैसे यह नीति अब विश्वसनीय नहीं रह गयी है। फिर भी तानाशाहों के तुष्टीकरण की इस नीति को सफलता भी मिली है और आज भी इस्लामी गणतंत्र ईरान के साथ कार्य व्यवहार में इस नीति के पालन की जिज्ञासा दिखती है।
अकादमिकों ने लम्बे समय से तुष्टीकरण को व्यापक रूप से बुरे ढंग से चित्रित करने को चुनौती दी है। 1961 में पहले ही आक्सफोर्ड के ए जे पी टेलर ने नेविले चेम्बरलेन के प्रयासों को न्यायसंगत सिद्ध किया , जबकि टेक्सास ए एंड एम के क्रिस्टोफर लेन ने कहा कि चेम्बरलेन ने " अपनी परिस्थितियों के अनुसार ठीक ही किया" ।यू सी एल ए के राजनीतिक विश्लेषक डैनियल ट्रीसमैन का मानना है कि तुष्टीकरण के विरुद्ध पूर्वानुमान का भाव अत्यंत सशक्त है, जबकि फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के सहयोगी राल्फ बी ए डिमूसियो ने इसे "साधारणीकरण" कहा है।
सम्भवतः तुष्टीकरण के समर्थन में सबसे अधिक समझाने वाला तर्क येल विश्वविद्यालय में ब्रिटिश इतिहास का अध्यापन करने वाले पाल एम केनेडी ने स्थापित करने का प्रयास किया है कि तुष्टीकरण का लम्बा और प्रामाणिक इतिहास है। 1976 के अपने लेख , " 1865 से 19939 तक ब्रिटेन की विदेश नीति में तुष्टीकरण की परम्परा" में केनेडी ने तुष्टीकरण को झगडों को शांत करने के एक तरीके के रूप में परिभाषित किया है जहाँ कि असंतोष के कारण को मान लिया जाता है और तार्किक बातचीत और समझौते से संतुष्ट किया जाता है , और इस प्रकार युद्ध के तरीकों की दुखद स्थिति से बचा जाता है। उनके अनुसार यह एक आशावादी रुख होता है जिसमें कि यह पूर्वानुमान लगाया जाता है कि मानव समझदार और शांतिपूर्ण होता है।
केनेडी के अनुसार 1930 के अंत में विलियन ग़्लैडस्टोन के प्रधानमंत्रित्व में तुष्टीकरण की नीति के अविश्वसनीय होने तक इसे " पूरी तरह सम्मानपूर्ण" माना जाता था और इसे, " विशेष रूप से ब्रिटिश कूटनीति का प्रकार माना जाता था" जो कि इस देश के चरित्र और परिस्थिति के अनुकूल बैठती थी। केनेडी के अनुसार इस नीति के कुल चार अर्ध स्थाई आधार थे जो कि सभी आज अमेरिका पर भी लागू होते हैं:
- नैतिक: उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब धर्मान्तरणवादी आंदोलन ने समस्त इंगलैंड में काफी प्रभाव बना लिया तो ब्रिटिश विदेश नीति ने विवादों का साफ और अहिंसक ढंग से निपटाने पर अधिक जोर देना आरम्भ किया।
- आर्थिक: विश्व के सबसे बडे व्यवसायी संयुक्त राज्य ब्रिटेन का राष्ट्रीय हित इस बात में सन्निहित था कि व्यापार में अवरोध से बचा जाये जिससे कि इसे बडे पैमाने पर हानि हो सकती है।
- रणनीतिक: ब्रिटेन का वैश्विक साम्राज्य आवश्यकता से अधिक बडा हो गया था ( जोशेफ चेम्बरलेन ने ही इसे विशाल बता दिया था) इसी कारण इसे अपने युद्धों के बारे में चुनना पडता था ,समझौते करने पडते थे जो कि स्वीकार्य और सामान्य मार्ग था समस्याओं से मुक्त होने का।
- घरेलू: अपने सहयोगियों के आधार पर बनी सार्वजनिक अवधारणा निर्णय लेने में एक बडा तत्व बनता गया। जनता को युद्ध से कोई वास्ता नहीं होता विशेष रूप से मँहगे युद्धों से।
इसका परिणाम यह रहा कि सात दशक तक लंदन ने कुछ अपवादों को छोडकर ऐसी विदेश नीति का पालन किया जो कि, " व्यावहारिक, झगडा न करने वाली और समझदार थी" । बार बार अधिकारियों को यह लगा कि " विवादों का शांतिपूर्ण समाधान ब्रिटेन के अधिक हित में था न कि युद्ध में जाना"। विशेष रूप से तुष्टीकरण ने ब्रिटेन की नीति को प्रभावित किया और साथ ही अमेरिका की भी, ( पनामा नहर, अलास्का सीमा, लैटिन अमेरिका में अमेरिकी प्रभाव के बारे में ) और जर्मनी ( " नौसेना अवकाश" प्रस्ताव, उपनिवेशवादी राहत , फ्रांस के साथ सम्बंध में संयम )
केनेडी ने इस नीति को सकारात्मक रूप से देखा है जिसने कि दशकों तक विश्व के शक्तिशाली राज्यों के विदेशी सम्बन्धों को दिशानिर्देशित किया है साथ ही , " ब्रिटिश राजनीतिक परम्परा के अनेक अच्छे आयामों को संक्षेप में प्रस्तुत किया है" । यदि यह अत्यंत सफल नीति नहीं थी तो भी तुष्टीकरण के चलते लंदन ने अपने गैर विचारधारागत प्रतिद्वंदियों के बढते प्रभाव को साथ रखा जैसे कि अमेरिका और जर्मनी जिन्हें कि राहत स्वीकार करना पडा और मँहगे भी नहीं सिद्ध हुए। इसी से ब्रिटेन धीरे धीरे पतनोन्मुख हुआ।
1917 के पश्चात तथा बोल्शेविक क्रांति के पश्चात इन राहतों के चलते विचारधारा से प्रभावित नये तरीके के शत्रु संतुष्ट नहीं हुए और 1930 में हिटलर , 1970 में ब्रेझनेव, 1990 में अराफात और किम जांग II और अब खोमैनी और अहमदीनेजाद। ये विचारक राहत का शोषण करते हैं और चतुराईपूर्वक बदले में ऐसी शर्त रखते हैं जिसे वे पूर्ण नहीं करना चाहते। विश्व पर नियंत्रण स्थापित करने की आकाँक्षा रखने वाले इन लोगों का तुष्टीकरण नहीं किया जा सकता। इन्हें राहत देने का सही मायने में अर्थ मगरमच्छ को पालना है।
तुष्टीकरण भले ही आज कितना ही अप्रभावी हो गया हो परन्तु आधुनिक पश्चिमी मनोविज्ञान को काफी प्रभावित करता है और अपरिहार्य रूप से तब अधिक बढ जाता है जब लोकतांत्रिक राज्य अपने आक्रामक विचारधारागत शत्रुओं का सामना करते हैं। जैसे ईरान का उदाहरण लें तो जार्ज डब्ल्यू बुश ने भले ही साहस पूर्वक कहा हो कि, " तुष्टीकरण को इतिहास ने अस्वीकार कर दिया है" परंतु मिडिल ईस्ट फोरम के सम्पादक माइकल रूबिन ने सही ही पाया है कि वास्तव में अमेरिकी नीति में, " बुश ईरान का तुष्टीकरण कर रहे हैं"
समापन करते हुए कहा जा सकता है कि तुष्टीकरण की नीति डेढ सौ वर्ष पहले से चली आ रही है जिसे कि कुछ सफलता भी मिली है और आज भी यह जीवित है। परंतु विचारधारागत शत्रुओं के मामले में जानबूझकर इसका विरोध होना चाहिये जितना ही 1930 के दशक ,1970 के दशक तथा 1990 के दशक की अवहेलना की जायेगी उतना ही इसे फिर से दुहराया जायेगा।