इस सप्ताह मिस्र में हुई घटना को लेकर अनेक प्रतिक्रियायें हुई हैं। यहाँ देखिये मेरे आलेख सहित कुल तेरह आलेख हैं जिनमें सुझाव दिया गया था कि ( मोर्सी को सत्ता से जल्दी बाहर कर दिया गया और वह इस्लामवाद को उतना क्षति नहीं पहुँचा पाये जितना वे पहुँचा सकते थे।)
क्या मोर्सी मिस्र के निर्वाचित राष्ट्रपति थे? मीडिया के सभी वर्णन में उन्हें ऐसा ही बताया गया है पर यह असत्य है। मैंने सिंथिया फरहत के साथ तीन लेख लिखे थे जिसमें कि पहले चरण के संसदीय चुनावों पर दृष्टि डाली थी ( मिस्र के चुनाव का छलावा,) दूसरे चरण पर ( मिस्र में चुनावी धोखाधडी की अवहेललना न की जाये) , और फिर राष्ट्रपति चुनावों पर दृष्टि डाली ( मिस्र का वास्तविक शासक : मोहम्मद तंतावी)
इन सभी में हमने यह साक्ष्य दिये कि 2011 -12 के चुनावों में बडे पैमाने पर हेरा फेरी हुई थी जो हमारी दृष्टि में सत्ताधारी सैन्य नेतृत्व की एक चाल थी कि सत्ता में बने रहा जाये। मुझे इस बात पर अत्यंत उलझन और व्यग्रता हो रही थी कि जो परिणाम कसौटी पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं उन्हें बार बार लोकतांत्रिक रूप से वैधानिक रूप में चित्रित किया जा रहा है। क्या इसी के चलते यह नहीं कहा जा रहा है कि सेना ने एक चुने हुए नेता का तख्ता पलट दिया।
मोर्सी के पास कभी शक्ति नहीं थी: वास्तव में सेना पर उनका नियंत्रण नहीं था , साथ ही उनके पास पुलिस , खुफिया विभाग , न्यायपालिका या फिर राष्ट्रपति की सुरक्षा में तैनात सुरक्षा कर्मियों पर भी अधिकार नहीं था। जैसे कि काइरो की एक रिपोर्ट के अनुसार , "इसके प्रतीक रूप में कि मोर्सी का मुबारक की अफसरशाही पर कितना अधिकार था , राष्ट्रपति गार्ड के अधिकारी जश्न मनाने लगे और महल के छत पर ध्वज लहराने लगे"। दूसरे शब्दों में मोर्सी अपनी सत्ता पर एक दुर्दशा के साथ बैठे थे और उन लोगों के सहारे जिन्होंने जून 2012 में उनके लिये चुनावों में दलाली की थी।
वहाँ केवल दो शक्ति केंद्र हैं सेना और इस्लामवादी: यह दुखद सत्य पिछले ढाई वर्षों में अरब भाषी क्षेत्रों की उथल पुथल में पुष्ट हो चुका है और अब यह मिस्र में फिर से पुष्ट हो गया है। जब कठिन दौर आता है तो उदारवादी, सेक्युलर और वामपंथी किसी श्रेणी में नहीं आते । उनकी सबसे बडी चुनौती राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनना है।
1952, 2011, 2013: मिस्र की सेना ने आधुनिक समय में तीन बार स्थापित नेताओं का तख्ता पलट किया है - राजा का, एक पूर्व वायु सेना के जनरल का और अब मुस्लिम ब्रदरहुड के व्यक्ति का। मिस्र में और किसी के पास यह शक्ति नहीं है। 2011 में और अब दोनों ही अवसरों पर सडक पर प्रदर्शन कर रहे लोग राष्ट्रपति को हटा कर एक दूसरे को बधाई दे रहे थे , परंतु यदि सेना ने उन राष्ट्रपतियों का साथ दिया होता न कि प्रदर्शकारियों का तो वे अब भी सत्ता में होते।
सेना कारोबारी समूह : सेना के अधिकारियों का देश की अर्थव्यवस्था पर व्यापक और कठोर नियंत्रण है। यह हित अन्य सभी हितों से बडा है; अधिकारी अन्य मामलों पर असहमत हो सकते हैं परंतु वे चाहते हैं कि ये विशेषाधिकार उनके बच्चों को भी उसी प्रकार मिलें जैसे वे अब हैं। इसे दूसरे रूप में कहें तो वे किसी के साथ भी हाथ मिलाने को तैयार हैं जो कि उनके विशेषाधिकार की गारंटी उन्हें दे, जैसा कि एक वर्ष पूर्व मोर्सी ने नये लाभों के साथ उन्हें यह गारंटी दी।
पर्दे के पीछे से शासन: फरवरी 2011 से अगस्त 2012 तक मोहम्मद अल तंतावी और सुप्रीम काउंसिल आफ द आर्म्ड फोर्सेस का प्रत्यक्ष शासन काफी बुरा था और इसी से समझा जा सकता है कि जनरल अब्दुलफतह अल सिसी ने तत्काल नागरिक सरकार को सत्ता क्यों सौंप दी।
तख्ता पलट का स्वभाव बदल गया है: 22 जुलाई , 1952 को कर्नल गमाल अब्दुल नसीर ने अनवर अल सादात से कहा कि वे सिनाय से काइरो आ जायें । परंतु सादात अपने परिवार के साथ फिल्म देखने लगे और लगभग राजशाही के तख्तापलट से चूक गये। इस उदाहरण से दो प्रमुख परिवर्तन का पता चलता है। पहला, पूर्व में तख्ता पलट अस्पष्ट और गोपनीय होता था और अब तख्ता पलट राष्ट्रीय स्वीकृति प्राप्त कर चुका है। दूसरा, अब सेना के सर्वोच्च अधिकारी राज्य प्रमुख को पद से हटाते हैं न कि गुस्से में आये कनिष्ठ अधिकारी। इसे अगर दूसरे रूप में लें तो मिस्र 2011 में तुर्की के तरीके के अत्याधुनिक तख्ता पलट के स्वरूप को प्राप्त कर गया है, जिसमें कि चार में से तीन तो सेना के सर्वोच्च अधिकारी द्वारा किया गया है न कि निचले अधिकारियों द्वारा।
सेना का फासीवाद: हिलेल फ्रिस्च का मानना है कि जब लोग पूरी तरह विभाजित हों तब लोगों की इच्छा की बात कहना वास्तव में उनकी और सुप्रीम काउंसिल आफ द आर्म्ड फोर्सेस की तानाशाही के अंतर्निहित दृष्टि को ही इंगित करता है। यह सत्य है और इसमें कुछ भी नया नहीं है , 1952 से ही सेना ने मिस्र पर भारी अलोकतांत्रिक रूप से शासन किया है।
अल्जीरिया का उदाहरण : 1992 में जब इस्लामवादी चुनाव जीतने वाले थे तो सेना ने राजनीतिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया ; मिस्र की वर्तमान स्थिति से इसकी तुलना की जा सकती है और इससे अनेक वर्षों तक नागरिक विप्लव की सम्भावना बनती दिख रही है। परंतु यह उदाहरण अल्जीरिया के लिये उपयोगी नहीं है क्योंकि अल्जीरिया में ऐसा कोई विरोध नहीं हुआ जैसा कि मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड के विरुद्ध जनता ने विरोध किया। यह आश्चर्यजनक होगा कि अपने पुराने अनुभव को देखते हुए और अपने विरोधियों को व्यापक रूप से उलझे हुए देखकर मिस्र के इस्लामवादी हिंसा पर उतर आयें।
क्या सिसी सलाफियों के साथ मिले हैं? इस बात पर ध्यान जाना चाहिये कि सिसी ने गलाल मोरा को चुने हुए गुट में से चुना कि वे घोषित करें कि मोर्सी को सत्ता से बाहर कर दिया गया है और यह इसलिये भी ध्यान देने योग्य है कि सिसी की कार्रवाई सलाफी के विचारों के अनुरूप है। विशेष रूप से उन्होंने न तो मोहम्मद अल बरदेई जैसे किसी वामपंथी को अन्तरिम सरकार का मुखिया बनाया और न ही उन्होंने वर्तमान इस्लामवादी संविधान को समाप्त किया वरन इसे निलम्बित भर किया ।
अदली मंसूर केवल चेहरा भर हैं: उन्होंने 1970 में गमाल अब्दुल नसीर के आकस्मिक निधन के बाद अनवर अल सादात के बारे में भी यही कहा था परंतु यह गलत सिद्ध हुआ। मंसूर संक्रमण काल के हो सकते हैं परंतु यह कहना भी जल्दबाजी है और विशेष रूप से जब उनके बारे में कोई जानकारी नहीं है।
एनी डब्ल्यू पैटरसन: मिस्र में अमेरिका के राजदूत ने मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ खडे होकर अपना सम्मान खो दिया। उन्हें काइरो की सडकों पर धिक्कारा गया और अमेरिका के सिद्धांतों के साथ विश्वासघात करने के लिये यह पुरस्कार उचित था।
क्या सउदी अरब मिस्र को आर्थिक सहायता देगा? डेविड पी गोल्डमैन ने पाया है कि सउदी अरब की राजशाही मुस्लिम ब्रदरहुड को अपना गणतांत्रिक प्रतिद्वंदी मानती है और मोर्सी के सत्ता से बाहर होने से काफी तनावमुक्त हुई है। उन्होंने सम्भावना जताई है कि रियाद के पास 630 बिलियन अमेरिकी डालर की बचत है और बिना किसी समस्या के वह 10 बिलियन अमेरिकी डालर मिस्र को प्रतिवर्ष दे सकता है जिससे कि उन्हें भूखों मरने से रोका जा सके। सम्भवतः मिस्र की भूखी जनता के लिये मिस्र की नजर में यही समाधान है। परंतु क्या बुजुर्गों का यह राज्य अपना बटुवा खोलेगा?