वर्तमान समय में इस्लाम एक पिछ्डा, आक्रामक और हिंसक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। यह इसी स्वरूप में रहेगा या फिर इसे सुधारा जा सकता है और नरम, आधुनिक और अच्छे पडोसी वाला बन सकता है? क्या इस्लामी अधिकारी अपने मजहब की ऐसी समझ बना सकते हैं जो कि गैर मुसलमानों और महिलाओं को सम्पूर्ण अधिकार दे साथ ही मुसलमानों को भी अपनी आत्मा की आवाज सुनने की स्वतंत्रता प्रदान करे , जो कि आधुनिक वित्तीय व्यवस्था और विधिशास्त्र के मौलिक सिद्धांत को स्वीकार करे और जो शरियत कानून या खिलाफत को लागू करने का प्रयास न करे ?
विश्लेषकों का ऐसा वर्ग बढ रहा है जो मानता है कि मुस्लिम मजहब ये चीजें नहीं कर सकता , क्योंकि ये विशेषतायें इस्लाम में अंतर्निहित हैं और मिलकर इसके स्वरूप को बनाती हैं जिनमें कि सुधार सम्भव नहीं है। जब लेखिका अयान हिरसी अली से प्रश्न किया गया कि क्या वे मेरे इस विचार से सहमत हैं कि " क्रांतिकारी इस्लाम समस्या है और नरमपंथी इस्लाम समाधान" तो उन्होंने उत्तर दिया , " उनका मानना गलत है मुझे इसका दुख है" । मैं और वे एक ही खाई में घिरे हैं और समान लक्ष्य के लिये संघर्ष कर रहे हैं और एक ही विरोधी से लड रहे हैं परंतु इस महत्वपूर्ण बिंदु पर हमारा मतभेद है।
मेरे तर्क के दो भाग हैं । पहला, अनेक विश्लेषकों की राय कि आवश्यक रूप से जो शास्त्रीय स्थिति है वही रहेगी गलत है और दूसरा एक सुधरा हुआ इस्लाम उभर सकता है।
आवश्यक रूप से शास्त्रीय स्थिति ही रहेगी इसके विरुद्ध तर्क
इस बात को कहना कि इस्लाम कभी परिवर्तित नहीं हो सकता इस बात पर जोर देना होगा कि कुरान और हदीथ जो कि इस मजहब के मूल स्तम्भ हैं उन्हें सदैव उसी रूप में समझा जाये। इस स्थिति को मुखरता देने का अर्थ है कि इसकी त्रुटि को सामने लाना क्योंकि किसी भी चीज का पालन मनुष्य सदैव नहीं कर सकता । सब कुछ यहाँ तक कि पवित्र पाठ्य का पाठन भी समय से साथ बदल जाता है। सभी का इतिहास होता है। सभी का एक भविष्य होता है जो कि अतीत से भिन्न होता है।
केवल मानवीय स्वभाव को समझने की भूल करके और पिछ्ली एक सह्स्राब्दी से अधिक समय से कुरान की व्याख्या में आये परिवर्तनों की अवहेलना करने से ही कोई इस बात का दावा कर सकता है कि प्रत्येक समय में कुरान को एक ही प्रकार से समझा गया है। अनेक मुद्दों में जैसे कि जिहाद, गुलामी , कर्ज पर ब्याज , मजहब में बाध्यता का सिद्धांत और महिलाओं की भूमिका को लेकर परिवर्तन आये हैं। यहाँ तक कि पिछले 1400 वर्षों में इस्लाम के अनेक व्याख्याकारों जैसे शफी अल गजाली, इब्न तैमिया , रूमी , शाह वलीउल्लाह और रुहोल्लाह खोमैनी का नाम हमारे मस्तिष्क में आता है जो कि इस्लाम के संदेश के विषय को लेकर आपस में एक दूसरे से असहमत हैं।
यद्यपि कुरान और हदीथ मुस्लिम अनुभव के केंद्र में हैं परंतु वही सब कुछ नहीं हैं, मोरक्को से लेकर इंडोनेशिया और उससे परे मुसलमानों का अनुभव भी कम महत्व नहीं रखता । इस्लाम के धर्मग्रथों पर ही रुके रहना उसी प्रकार है जैसे कि अमेरिका की व्याख्या को संविधान की दृष्टि से ही किया जाये; देश के इतिहास की अवहेलना से पूरी समझ ही बिखर जायेगी।
यदि इसे पूरी तरह भिन्न रूप से कहें तो मध्यकाल में मुस्लिम सभ्यता चरम पर थी परंतु आज वे उपलब्धियों के सभी सूचकाँक में पीछे हैं। यदि चीजें बुरी हो सकती हैं तो वे अच्छा भी कर सकते हैं। इसी प्रकार अपने कैरियर में जब मैंने 1969 में इस क्षेत्र में प्रवेश किया था तो इस्लामवाद को मामूली आरम्भ के साथ देखा था परंतु यह बडी शक्ति प्राप्त कर चुका है; यदि इस्लामवाद इस प्रकार उन्नति कर सकता है तो इसका पराभव भी हो सकता है।
यह कैसे होगा?
मध्ययुगीन संश्लेषण
सार्वजनिक जीवन में इस्लाम की भूमिका की चाबी शरियत और मुसलमानों के लिये इसकी अनेक अतार्किक माँगें हैं । शरियत के अनुसार सरकार को कम से कम कर से चलाया जाना चाहिये परंतु यह स्थायी सिद्ध नहीं हो सका ; इसी प्रकार बिना ब्याज के किसी वित्तीय व्यवस्था को कैसे चलाया जा सकता है? दंड व्यवस्था में अनैतिक कृत्य को रंगे हाथों चार पुरुष देखें यह भी अव्याहारिक है। साथी मुस्लिम के विरुद्ध युद्ध को भी शरियत प्रतिबंधित करता है और इस पर भी खरा उतरना सम्भव नहीं है ; वास्तविकता तो यह है कि मुसलमानों द्वारा किये गये युद्ध का तीन चौथाई तो अन्य मुसलमानों के विरुद्ध किया गया है। इसी प्रकार गैर मुसलमानों के विरुद्ध शास्वत जिहाद पर जोर देने के लिये भी काफी प्रयास की आवश्यकता है।
इन अवास्तविक माँगों सहित अन्य माँगों को लेकर पूर्व आधुनिक मुसलमानों ने कुछ ऐसे कानूनी रास्ते निकाले जिसकी आड में वे इन इस्लामी नियमों में बिना इनका उल्लंघन किये कुछ लचीलापन ला सकें। विधिशास्त्रियों ने हियाल ( दाँवपेंच ) अपनाया साथ ही अन्य तरीके अपनाये ताकि कानून को शाब्दिक अर्थों में पूरा किया जा सके जबकि उसकी मूल भावना की अवहेलना हो जाये। उदाहरण के लिये गैर मुस्लिम राज्यों के साथ शांतिपूर्वक रहने के लिये अनेक तरीके निकाले गये। इसी प्रकार इस सामग्री के दो बार बिक्री की व्यवस्था की गयी ताकि खरीदने वाला छुपे रूप से ब्याज अदा कर सके। साथी मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध को नया नाम जिहाद दिया गया।
इस्लाम में शरियत और वास्तविकता के मध्य इस समझौते को मैंने अपनी पुस्तक In the Path of God (1983) में मध्यकालीन संश्लेषण कहा है। इस संश्लेषण से इस्लाम एक अव्यावहारिक माँगों वाले से कामचलाऊ व्यवस्था में परिवर्तित हो गया। व्यावहारिक रूप में देखें तो इसने शरियत को नरम किया और विधि संहिता को उपयोगी बना दिया। अब शरियत को मुसलमानों पर सख्ती किये बिना भी लागू किया जा सकता था। बोस्ट्न विश्वविद्यालय के Kecia Ali अन्य विशेषज्ञों को उद्धृत करते हुए आरम्भिक इस्लाम में विवाह और गुलामी को लेकर औपचारिक कानून और लागू किये गये कानून के मध्य विरोधाभास को उल्लिखित किया है।
कानून का अध्ययन जिस प्रकार आगे बढा है उसका एक बडा रास्ता यह रहा है कि " सिद्धांत की तुलना न्यायालय में वास्तविक अनुपालन से की जानी चाहिये" । एक विद्वान ने आध्यात्मिक और कानूनी पाठ्य पर चर्चा करते हुए लिखा, " औपचारिक स्रोतों के द्वारा प्रस्तुत किये चित्र और सामाजिक व्यवहार में काफी विरोधाभास रहा है" । अध्ययन से पता चलता है कि लचीले और अपेक्षाकृत निष्पक्ष न्यायालयीन निर्णय अनेक बार न बदलने वाले और कठोर पाठ्य की परम्परा से जुडे होते हैं। हमें ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि " इस्लामी कानून में भी लचीलापन है जिसे कि आम तौर पर जड और क्रूर चित्रित किया जाता है" ।
हालाँकि मध्यकालीन संश्लेषण ने अनेक शताब्दियों तक काम चलाया परंतु यह मूल कमजोरी को कभी नहीं दूर कर सका। यह व्यापक रूप से इस्लाम के संवैधानिक पाठ्य में या स्थापना से प्रेरित नहीं है। समझौते और आधे अधूरे कदमों पर आधारित होने के चलते इसे शुद्धतावादियों से चुनौती मिलती ही रही। वास्तव में पूर्व आधुनिक मुस्लिम इतिहास अनेक ऐसी चुनौतियों को दर्शाता है जिसमें कि उत्तरी अफ्रीका में 12वीं शताब्दी में अलमोहद आंदोलन और 18वीं सदी का अरब का वहाबी आंदोलन । इन सभी मामलों में शुद्धतावादियों के प्रयासों को दबा दिया गया और मध्यकालीन संश्लेषण पुनः प्रभावी हुआ और शुद्धतावादियों की चुनौती फिर से नये सिरे से सामने आयी। व्यवहारिकतावादियों और शुद्धतावादियों से ही मुस्लिम इतिहास का चरित्र बनता है और यही इसकी अस्थिरता का कारण भी है।
आधुनिकता की चुनौती
मध्यकालीन संश्लेषण ने जो अघोषित समाधान प्रस्तुत किया था वह यूरोप द्वारा थोपी गयी आधुनिकता के आने के साथ ही समाप्त हो गया जिसे कि परम्परागत रूप से 1798 में मिस्र पर नेपोलियन के आक्रमण के समय से माना जाता है। इस चुनौती ने मुसलमानों को अगली दो शताब्दियों तक दो परस्पर विरोधी दिशाओं में धकेल दिया या तो पश्चिमीकरण या फिर इस्लामीकरण।
जो मुसलमान पश्चिमी उपलब्धियों से प्रभावित हुए उन्होंने शरियत को महत्वहीन करने का प्रयास किया और मजहब को स्थापित स्वरूप न देने , महिलाओं और गैर मुस्लिम को बराबरी का अधिकार देने जैसे क्षेत्रों में पश्चिमी मार्ग का अनुसरण किया। आधुनिक तुर्की के संस्थापक कमाल अतातुर्क ( 1881 -1938 ) ने इस प्रयास को प्रतीकात्मक स्वरूप दिया। 1970 तक इसे ही मुस्लिम भाग्य माना गया क्योंकि पश्चिमीकरण के प्रति उनका प्रतिरोध पूरी तरह निरर्थक रहा।
परंतु यह प्रतिरोध काफी गहरा सिद्ध हुआ और अंततः इसे विजय प्राप्त हुई। अतातुर्क के कुछ उत्तराधिकारी हुए और उनका तुर्की गणतंत्र पुनः शरियत की ओर लौट रहा है। पश्चिमीकरण के बारे में लगता था कि यह मजबूत है परंतु ऐसा था नहीं चूँकि दिखने वाले और मुखर कुलीन इससे आकर्षित थे इसलिये ऐसा लगा परंतु सामान्य जनमानस पीछे रह गया। 1930 के आसपास पश्चिमीकरण को न अपनाने वालों ने स्वयं को संगठित करना और इसके लिये अपने सकारात्मक कार्यक्रम विकसित किये विशेष रूप से अल्जीरिया, मिस्र , ईरान और भारत में। पश्चिमीकरण को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए शरियत के पूर्ण पालन का तर्क दिया और उनकी कल्पना इस्लाम के आरम्भिक दिनों की थी।
इन आंदोलनों ने जिन्हें कि इस्लामवाद कहा गया उन्होंने पश्चिम को अस्वीकार करते हुए अपने समय की अधिनायकवादी विचारधारा फासीवाद और कम्युनिज्म के अनुरूप स्वयं को ढाला । इस्लामवाद ने अनेक अनुमान इन विचारधाराओं से उधार लिये जैसे कि व्यक्ति पर राज्य की सर्वोच्चता , क्रूर और बलपूर्वक अपनी स्वीकार्यता बनाना तथा पश्चिमी सभ्यता से संघर्ष की कृत्रिम आवश्यकता । उन्होंने धीरे से पश्चिम से सैन्य और चिकित्सा तकनीक भी उधार ले ली।
अपने रचनात्मक , कठिन परिश्रम के चलते इस्लामवादी शक्तियों ने अगली आधी सदी में मजबूती प्राप्त की और अंततः 1978 – 79 में अतातुर्क विरोधी अयातोला खोमैनी ( 1902 – 89 ) के नेतृत्व में ईरानी क्रांति के सहारे सत्ता और प्रभाव दोनों प्राप्त कर लिये। इस नाटकीय घटनाक्रम और इस्लामी व्यवस्था निर्मित करने के इसके लक्ष्य ने इस्लामवादियों को काफी प्रेरित किया जिन्होंने कि इसके बाद 35 वर्षों में समाज के विकास और शरियत को पवित्र व कठोर रूप से लागू करने की दिशा में काफी सफलता प्राप्त की है ।उदाहरण के लिये ईरान में शिया शासन ने समलैंगिकों को क्रेन से लटकाया और पश्चिमी वेश वाले ईरानियों को शौचालय का पानी पीने पर विवश किया और इसी प्रकार अफगानिस्तान में तालिबान शासन ने लडकियों के विद्यालय और संगीत स्टोर जला दिये। इस्लामवादियों का प्रभाव पश्चिम में भी प्रवेश कर चुका है जहाँ कि बडी संख्या में महिलायें हिजाब , निकाब और बुर्का पहनती हैं।
हालाँकि इस्लामवाद को अधिनायकावादी माडल की पुनरावृत्ति ही माना जाता है परंतु इसने फासीवाद और कम्युनिज्म से कहीं अधिक समायोजन का प्रदर्शन किया है। पहले की दोनों विचारधारायें हिंसा और उत्पीडन से बाहर शायद ही जा सकीं । परंतु इस्लामवाद ने तुर्की के प्रधानमंत्री रिसेप तईप एरडोगन ( 1954) और उनकी एकेपी के नेतृत्व में इस्लामवाद का गैर क्रांतिकारी स्वरूप ढूँढ लिया है। 2002 में वैधानिक तरीके से सत्ता में आने के बाद एकेपी ने धीरे धीरे देश के स्थापित लोकतांत्रिक ढाँचे के भीतर अच्छे प्रशासन से , लम्बे समय से तुर्की में सेक्युलरिज्म की अभिभावक रही सेना को भडकाये बिना तुर्की के सेक्युलरिज्म को कमतर करने का काम किया है।
आज इस्लामवादी विजय के मार्ग पर हैं परंतु उनकी सर्वोच्चता अभी हाल की है और लम्बे समय तक यह रहेगी इसकी गारंटी नहीं है। निश्चित रूप से अन्य स्वप्निल विचारधाराओं की भाँति इस्लामवाद भी अपनी अपील खो देगी और इसकी सत्ता क्षीण हो जायेगी। निश्चित ही 2009 और 2013 में ईरान व मिस्र में हुए विद्रोह इसी दिशा में हैं।
आधुनिक संश्लेषण की ओर
यदि इस्लामवाद को पराजित किया जाना है तो इस्लामवाद विरोधी मुसलमानों को इस्लाम की वैकल्पिक दृष्टि और व्याख्या सामने लानी होगी कि मुस्लिम होने का अर्थ क्या है? ऐसा करते हुए वे अतीत की ओर देख सकते हैं विशेष रूप से 1850 से 1950 के काल में हुए सुधारों के प्रयास की ओर ताकि मध्यकाल की तुलना में "आधुनिक संश्लेषण" का विकास कर सकें। इस संश्लेषण में शरियत के मूल तत्वों को चुनकर इस्लाम को आधुनिकता के साथ चलने वाला बनाया जा सके। इसमें लैंगिक समानता , इस्लाम न मानने वालों के प्रति शांतिपूर्ण सहअस्तित्व तथा वैश्विक खिलाफत की आकाँक्षा का परित्याग शामिल होगा।
यहाँ इस्लाम की तुलना दो प्रमुख एकेश्वरवादी धर्मों से की जा सकती है। आधी सहस्राब्दी पूर्व यहूदी ईसाई और मुस्लिम इस बात पर सहमत थे कि जबरन मजदूरी स्वीकार्य है परंतु ब्याज चुकाना और धन उधार लेना स्वीकार्य नहीं है। बाद में काफी लम्बी और तीखी बहस के बाद यहूदी और ईसाइयों ने इन दो मुद्दों पर अपनी राय बदल ली और आज कोई भी यहूदी या ईसाई आवाज अब न तो गुलामी का समर्थन करती है और न ही सम्मानजनक ब्याज या उधार की निंदा करती है।
मुसलमानों में यह बहस अभी आरम्भ ही हुई है। यदि कतर में 1952 में, सउदी अरब में 1962 में और मौरीटानिया में 1980 में गुलामी पर आधिकारिक रूप से प्रतिबंध लग चुका है परंतु यह अब भी इन मुस्लिम बहुल देशों में अस्तित्व में है ( विशेष रूप से सूडान और पाकिस्तान में) ।कुछ इस्लामी अधिकारी Some Islamic authorities तो यहाँ तक दावा करते हैं कि पवित्र मुस्लिम को गुलामी का समर्थन करना चाहिये। 1 खरब अमेरिकी डालर के विशाल वित्तीय संस्थान पिछले 40 वर्षों में केवल इसलिये विकसित हुए हैं कि उपासक मुस्लिम यह दिखावा कर सकें कि वे ब्याज न तो लेते हैं और न देते हैं ( दिखावा इसलिये कि इस्लामी बैंक ब्याज के स्थान पर सेवा शुल्क लेते हैं)
सुधारवादी मुसलमानों को अपने मध्यकालीन पूर्वजों से अच्छा करना होगा और अपनी व्याख्या धर्मग्रंथों और युगानुकूल संवेदना के संदर्भ में करनी होगा। यदि मुसलमान अपने मजहब को आधुनिक बनाना चाहते हैं तो उन्हें गुलामी, ब्याज , महिलाओं के साथ व्यवहार , इस्लाम को छोडने के अधिकार , कानूनी प्रक्रिया सहित अन्य मामलों में अपने साथी एकेश्वरवादियों का आचरण पालन करना होगा। जब एक सुधरा हुआ आधुनिक इस्लाम विकसित होगा तो यह महिलाओं के साथ असमानता का अधिकार , धिम्मी स्तर , जिहाद , आत्मघाती आतंकवाद सहित विवाहेतर सम्बन्धों के लिये मृत्युदंड , पारिवारिक सम्मान के लिये घात , ईशनिंदा और धर्म छोडने जैसे विषय समाप्त कर देगा।
इस युवा शताब्दी में पहले ही इस दिशा में कुछ सकारात्मक चिन्ह दिख रहे हैं। महिलाओं के सम्बंध में कुछ घटनाक्रम हुए हैं:
- सउदी अरब में बाल विवाह के विषय पर लोगों के बढते आक्रोश के चलते शुरा काउन्सिल ने वयस्क की आयु 18 वर्ष कर दी गयी। हालाँकि इससे बाल विवाह समाप्त नहीं होगा परंतु इस प्रथा को समाप्त करने में सफलता अवश्य मिलेगी ।
- तुर्की के मौलवी इस बात पर सहमत हो गये कि मासिक धर्म वाली महिलायें मस्जिद में जा सकती हैं और पुरुषों के साथ नमाज पढ सकती हैं।
- ईरान की सरकार ने दोषयुक्त विवाहेतर अवैध सम्बंधों पर पत्थर से मारने को लगभग प्रतिबंधित कर दिया है।
- ईरान में महिलाओं ने तलाक के लिये अपने पति पर मुकद्दमा करने के व्यापक अधिकार प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है।
- मिस्र में मुस्लिम विद्वानों के सम्मेलन में स्त्रियों के खतना को इस्लाम के विपरीत माना गया और वास्तव में इसे दंडनीय माना गया ।
· भारत के प्रमुख मुस्लिम संस्थान दारूल उलूम देवबंद ने बहुविवाह के विरुद्ध फतवा जारी किया है।
कुछ अन्य उल्लेखनीय घटनाक्रम महत्वपूर्ण हैं जो कि महिलाओं के सम्बंध में नहीं हैं :
- सउदी सरकार ने जजिया समाप्त कर दिया (गैर मुस्लिम पर कर लगाना)
- ईरान के एक न्यायालय ने एक मृत ईसाई के परिवार को मुस्लिम पीडित के समान ही हर्जाना प्राप्त करने का निर्णय दिया ।
- इंटरनेशनल इस्लामिक फिख अकेडेमी ने शारजाह में धर्म से बाहर गये लोगों को मृत्युदन्ड देने के प्रश्न पर बहस आरम्भ की है।
इस बीच व्यक्तिगत सुधारकों ने हमारे विचारों को लेकर उत्सुकता जताई है यदि उसे स्वीकार नहीं किया तो कम से कम विचार को प्रेरित अवश्य किया है। उदाहरण के लिये सउदी महिला पत्रकार नदीन अल बदीर Nadin al-Badir ने काफी उत्तेजनात्मक सुझाव दिया कि मुस्लिम महिलाओं को भी पुरुषों की भाँति चार पति रखने का अधिकार होना चाहिये। उसने तो बिजली गिरा दी और उसे धमकियाँ भी मिलीं , कानूनी कार्रवाई सहित नाराज अवमानना तक परंतु उन्होंने एक बहस आरम्भ की जिसे कि इससे पहले के समय में सोचा भी नहीं जा सकता था।
मध्यकालीन अवसरों की भाँति आधुनिक संश्लेषण पर भी शुद्धतावादियों के आक्रमण का खतरा बना रहेगा जो कि मुहम्मद के उदाहरण को दिखाकर इस बात पर जोर देंगे कि किसी को भी इससे अलग नहीं होना चाहिये। परंतु इस बात को देखने के बाद भी कि इस्लामवाद क्या है भले ही हिंसक हो या न हो जो कुछ विनाश उसने किया है उससे इस बात की आशा की जा सकती है कि मुसलमान मध्यकालीन व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के स्वप्न को अस्वीकार कर आधुनिकता के साथ समझौता कर लेंगे। इस्लाम को एक मध्यकालीन मानसिकता का अवशेष न होकर वह होना चाहिये जो कि आज मुसलमान इसे बनाना चाहते हैं।
नीतिगत परिणाम
वे मुस्लिम और गैर मुस्लिम जो कि शरियत , खिलापत और जिहाद की यातना का विरोध करते हैं वे अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये क्या कर सकते हैं?
इस्लामवाद विरोधी मुसलमानों के सामने बडी जिम्मेदारी केवल इस्लामवाद के विकल्प में दृष्टि विकसित करने की नहीं है वरन इस्लामवाद के विकल्प में आन्दोलन खडा करने की है। इस्लामवादियों ने अपनी सत्ता और प्रभाव को अपनी लगन और कठोर परिश्रम से प्राप्त किया है और वह भी शालीनता और निस्वार्थ भाव से। इस्लामवाद विरोधियों को भी परिश्रम करना होगा कि इस्लामवाद के समानान्तर विचारधारा विकसित हो सके और फिर इसका विस्तार हो। विद्वानों द्वारा पवित्र ग्रंथों की व्याख्या और नेताओं द्वारा समर्थकों को अपने पीछे लाना इसकी केंद्रीय भूमिका होगी ।
गैर मुस्लिम दो प्रकार से सहायता कर सकते हैं कि आधुनिक इस्लाम आगे बढे: पहला, सभी प्रकार के इस्लामवाद का प्रतिरोध न केवल ओसामा बिन लादेन के क्रूर अतिवादी स्वरूप का वरन चुपके से, कानून सम्मत , राजनीतिक आंदोलन जो कि तुर्की के एरडोगन द्वारा चलाया जा रहा है जो कि बिन लादेन से कम क्र्रूर है परंतु कहीं अधिक प्रभावी और कहीं से भी कम खतरनाक नहीं है। जो भी शरियत के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता , कानून के समक्ष समानता तथा अन्य मानवधिकारों में कमी या उससे वन्चित किये जाने का विरोध करता है उसे इस्लामवाद के किसी भी संकेत का लगातार प्रतिरोध करना चाहिये।
दूसरा, गैर मुसलमानों को इस्लामवाद विरोधियों को नरम व पश्चिमीकृत किये जाने का समर्थन करना चाहिये। ऐसे लोग आज कमजोर और बिखरे हुए हैं और इनके समक्ष विशाल चुनौती है परंतु उनका अस्तित्व है और वैश्विक जिहाद और इस्लामी सर्वोच्चता के खतरे को पराजित करने की आशा वही हैं ताकि इसे ऐसे इस्लाम से स्थानांन्तरित कर सकें जो कि सभ्यता के लिये खतरा न बने ।