रिवेल गेरेच ऐसे व्यक्ति हैं जिनके लेखन का मैं प्रशंसक हूँ . मध्य एशिया से संबंधित विभिन्न विषयों में गहरी दृष्टि रखने वाले श्री गेरेच समय – समय पर वीकली स्टैन्डर्ड में भी लिखते हैं.तथा अमेरिकन इन्टरप्राइज इंस्टीट्यूट के सदस्य भी हैं .1997 में उनके द्वारा लिखी गई पुस्तक नो थिन एनेमी को मैंने अत्यंत मेधावी जासूसी रिपोर्ट कहा था .
कालांतर में श्री गेरेच कट्टरपंथी इस्लाम की सत्ता में वापसी की वकालत करने वाले जिम्मेदार दक्षिणपंथी बन गए . इस निष्कर्ष तक पहुँच कर उन्होंने मुहावरा गढ लिया कि “ बिन लादेन वाद को कट्टरपंथी इस्लाम ही अस्त-व्यस्त कर सकता है ” तथा उदारवादी मुसलमान इसका उत्तर कतई नहीं है.
शिया मौलवी और सुन्नी कट्टरपंथी ही भविष्य के 11 सितंबर से हमारी रक्षा करेंगे .
अपनी संक्षिप्त पुस्तक “इस्लामिक विरोधाभास – शिया मौलवी , सुन्नी कट्टरपंथी और अरब में लोकतंत्र का आगमन ” में श्री गेरेच अपने विचार प्रस्तुत करते हैं. तुष्टीकरण करने वालों के विपरीत वे न तो कोई पेशबंदी करते हैं और न ही स्वयं को किसी भ्रम में रखते हैं .उनका विश्लेषण काफी कठोर और चालाक भी है.परंतु उनका निष्कर्ष मौलिक रुप से दोषपूर्ण है .
अरबी भाषा बोलने वाले सुन्नी मुसलमानों के मध्य कट्टरपंथी इस्लाम के उदय को वाशिंगटन को किस प्रकार देखना चाहिए ?यह प्रश्न श्री गेरेच उठाते हैं और फिर इसका उत्तर भी इरान और अल्जीरिया के परस्पर विरोधी इतिहास में देते हैं .
इरान में 1979 से इस्लामवादियों का शासन चल रहा है .इस शासन काल के कारण कट्टरपंथी इस्लाम से लोगों का मोह समाप्त हो रहा है और यह भावना अब धार्मिक पद सोपान के ऊपरी स्तर तक पहुँच चुकी है. “टाइम”पत्रिका ने अभी हाल में छापा कि एक इरानी नवयुवक ने अपने समाज को एक पीड़ादायक अनुभव बताया .इसकी व्याख्या करते हुए उसने कहा कि वहाँ के नवयुवकों का व्यवहार ऐसा है मानों इस्लामिक गणराज्य का अस्तित्व ही नहीं है .गेरेच के शब्दों में “शाह के पतन के 26 वर्षों बाद इरान की जिहादी संस्कृति पूरी तरह समाप्त हो चुकी है ”.इस्लामवाद स्वयं इस मर्ज की दवा बन चुका है .
यद्यपि अल्जीरिया के संबंध में श्री गेरेच का मानना है कि कट्टरपंथी इस्लाम को नियंत्रित करने के प्रयास विध्वंसक रहे . 1992 में जब इस्लामिक कट्टरपंथी चुनावी जीत की ओर अग्रसर थे तो सेना ने दखल देकर मतदान बीच में रोक दिया जिससे वर्षों के लिए एक गृहयुद्द का मार्ग प्रशस्त हो गया.श्री गेरेच के अनुसार वाशिंगटन ने सेना के इस तख्तापलट का समर्थन अपने इस सिद्दांत के आधार पर किया कि “तानाशाही शासन कितना ही असुखद क्यों न हो उन कट्टरपंथियों के मुकाबले तो बेहतर होगा जो लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते और तानाशाही प्रशासन उस राजनीतिक रास्ते को विकसित करेगा जो हमारे अनुकूल होगा.”
इस घटना की ओर पीछे मुड़कर देखने पर गेरेच को अल्जीरिया के संबंध में अपनाई गई नीति दोषपूर्ण लगती है . उनके अनुसार 1992 में इस्लामवादियों की चुनावी विजय संभवत: उन अल्जीरियनों की भावना और उर्जा का रास्ता बदल देती जिन्होंने हिंसा का रास्ता अपना लिया है .दूसरी ओर इरान में इस्लामवादियों के शासन के बाद लोग इस सामान्य विचार को नकारने लगे हैं कि इस्लाम सभी समस्याओं का उत्तर है . श्री गेरेच अपनी बात समाप्त करते हुए कहते हैं कि वाशिंगटन को अपनी भूलों को सुधारते हुए सुन्नी इस्लामवादियों को चुनावों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.उन्हें सत्ता में आने देना चाहिए इससे उनकी विश्वसनीयता समाप्त हो जाएगी और अपनी जनता के द्वारा ही वे अलग – थलग कर दिए जायेंगे जिससे वे स्वयं इतिहास के कूड़ेदान में समा जायेंगे.
इस संबंध में श्री गेरेच से मेरी असहमति है .मेरा नारा है “ कट्टरपंथी इस्लाम समस्या है और उदारवादी इस्लाम इसका समाधान .”जबकि गेरेच मानते हैं कि उदारवादी मुसलमान इस समस्या का समाधान नहीं है . संक्षेप में उनका विचार है कि कट्टरपंथी इस्लाम समस्या भी है और समाधान भी है . उनकी इस होमियोपैथिक पद्दति के पीछे कुछ तर्क हैं जैसे सामाजिक रुप से इरान अल्जीरिया से कहीं अधिक व्यवस्थित स्वरुप में है.
लेकिन इरान के शासन पर इस्लामवादियों की पकड़ ने बहुत सी मानवीय और रणनीतिक समस्याओं को जन्म दिया है .तेहरान ने इराक के साथ 1982 से 1988 के मध्य 6 वर्षों तक युद्द किया और अब परमाणु अस्त्र की तैनाती का प्रयास कर रहा है .इसकी तुलना में अल्जीरिया की ओर से कोई समस्या उपस्थित नहीं की गई है .यदि अल्जीरिया में भी इस्लामवादी सत्ता पर काबिज हो जाते तो इसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया भी इरान के समान विध्वंसक होती .
इस्लामवादियों के शासन की भयावहता को स्वीकार करते समय गेरेच अनावश्यक रुप से पराजित मानसिकता का प्रदर्शन करने लगते हैं .वाशिंगटन को निष्क्रिय होकर मुस्लिम देशों में दशकों से चले आ रहे अधिनायकवादी शासन के साथ समझौता करने के बजाए इन देशों में अधिनायकवाद के स्थान पर लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त करने में सहायता करनी चाहिए. इस दौरान इस बात का भी प्रयास करना चाहिए कि यह प्रक्रिया इस्लमावादी युग की चपेट में न आए . य़ह निश्चित रुप से एक प्राप्य लक्ष्य है . अल्जीरिया के संकट के संबंध में एक दशक पूर्व मैंने कहा था कि जल्दी –जल्दी चुनावों पर ध्यान केन्द्रित करने की नीति से इस्लामवादियों को लाभ होगा .अमेरिकी प्रशासन को धीरे – धीरे चलते हुए अधिक गंभीर लक्ष्य की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए यह लक्ष्य है “ राजनीतिक भागीदारी , एक स्वतंत्र न्यायपालिका सहित कानून का राज , अभिव्यक्ति और धर्म की स्वतंत्रता , संपत्ति का अधिकार , अल्पसंख्यकों का अधिकार और राजनीतिक दल निर्मित करने का अधिकार .” इन लक्ष्यों की प्राप्ति के बाद ही चुनाव संपन्न कराए जायें .वास्तविकता यह है कि इन लक्ष्यों की प्राप्ति में दशकों लग जायेंगे . चुनाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया का विकास पूर्ण होने पर कराए जायें न कि इससे पूर्व .सभ्य समाज इस प्रक्रिया को अपनाकर इसकी सफलता का उल्लास मनाए .एक बार ऐसा समाज अस्तित्व में आ गया तो मतदाता इस्लामवादियों को सत्ता में नहीं पहुँचायेंगे ( ऐसा समाज इरान में तो है लेकिन अल्जीरिया में नहीं है ).