नोट - कमेंट्री पत्रिका की 60 वीं वर्षगांठ के अवसर पर विश्व में अमेरिका की स्थिति पर विचार –विम्रर्श को आगे बढ़ाने के लिए संपादक ने अनेक विचारकों से एक बयान और चार प्रश्नों पर ध्यान देने के लिए कहा –
11 सितंबर को इस्लामवादियों द्वारा किये गए हमले के बाद जार्ज डब्लयू बुश के नेतृत्व में अमेरिका ने राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में नई व्यापक नीति अपनाई है . बुश का सिद्धांत- जैसा कि इस नीति से स्पष्ट है वह है पहले हमला करके किसी खतरे को उभरने से पूर्व ही नष्ट कर देना . यह इस बात पर भी जोर देता है कि घृणा और कट्टरता फैलाने वाली संस्कृतियों को भी परिवर्तित किया जाये . इसके लिए ऐतिहासिक कदम उठाते हुए उन्होंने मध्यपूर्व तथा इससे आगे लोकतंत्र तथा स्वतंत्रता स्थापित करने का प्रयास किया है . “राष्ट्रपति के शब्दों में हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए स्वतंत्रता को आगे बढ़ाना आवश्यक है.”
नीति में इस तरह पूरी तौर से बदलाव करने से काफी विवाद उठा है.. न केवल इसकी व्यावहारिकता को लेकर वरन् ईराक में इसे लागू करने पर भी. संक्षेप में ये मुद्दे हैं- पश्चिम और अमेरिका के समक्ष उत्पन्न खतरे ,उनका सामना करने के लिए अपनाई गई विशेष रणनीतियां , अमेरिका की क्षमता , परंपरागत साथियों के साथ संबंध , अमेरिका की विदेश नीति के नैतिक पहलू तथा व्यापक हेतु , इसके अलावा और भी काफी कुछ . इन मामलों पर विचारों का विभाजन केवल दक्षिणपंथी और वामपंथियों के बीच ही नहीं है वरन् अमेरिका के परंपरावादियों के मध्य भी है.
1. बुश के सिद्धांत के संबंध में आपका विचार क्या है और आप स्वयं को कहां खड़ा पाते हैं? क्या आप राष्ट्रपति द्वारा खतरे की पहचान से सहमत हैं और इसे समाप्त करने के लिए उनके द्वारा उठाए गए कदम से सहमत हैं?
2. बुश की राय में आपके अनुसार अमेरिका कितना सुरक्षित हुआ है तथा सुरक्षित विश्व वातावरण की दिशा में कितनी प्रगति हुई है.
3. क्या अमेरिका की नीति के कुछ विशेष पहलू हैं, या फिर प्रशासन द्वारा इसे चलाने या इसे व्याख्यायित करने के स्वरुप में आप कोई तत्काल परिवर्तन करना चाहेंगे .
4. बुश के सिद्धांत को जिस प्रकार परिभाषित किया गया है या जिस प्रकार उसे लागू किया गया है उससे परे क्या आप इस सिद्धांत से सहमत हैं जो इस सिद्धांत के अंतर्गत अमेरिका की विश्व में भूमिका और अमेरिका की शक्ति, नैतिक जिम्मेदारी निर्धारित की गई है.
जैसा की संपादक ने लिखा है कि बुश सिद्धांत के दो भाग हैं. – पहले हमला करना तथा लोकतंत्र दोनों ही दूरगामी प्रभाव हैं. फिर भी उनकी पहुंच अलग-अलग है. पहले हमला करना आक्रामक क्रूरता और कट्टरपंथी गुटों से संबंधित विषय है . लोकतंत्र प्रमुख रुप से एक क्षेत्र मध्यपूर्व से संबंधित है . दोनों पर अलग – अलग ध्यान देने की आवश्यकता है .
अमेरिका तथा अन्य लोकतांत्रिक सरकारें ऐतिहासिक रुप से पहले हमला करके नहीं वरन् शक्ति संतुलन के द्वारा दुश्मनों को परे रखने में सफल रही हैं.
शक्ति संतुलन से संकेत मिलता है “ हमें क्षति मत पहुंचायो अन्यथा भारी कीमत चुकानी पड़ेगी ” . शीत युद्ध में इस नीति को काफी सफलता प्राप्त हुई . शक्ति संतुलन के कुछ महत्वपूर्ण नुकसान भी हैं , यह धीमा , निष्क्रिय और खर्चीला है . इससे भी बुरा यह की कि यदि यह असफल रहा तो युद्ध आवश्यक है. ऐसा तब होता है जब अत्याचारी को डराया नहीं जाता ( हिटलर के मामले में ) या फिर शक्ति संतुलन के खतरे को पूरी तौर पर व्यक्त नहीं किया जाता ( सद्दाम हुसैन, किम द्वितीय संग)
हाल के कुछ परिवर्तन संकेत देते हैं कि शक्ति संतुलन उतने प्रभावी नहीं रहे जितने पहले थे . सोवियत संघ के पतन का अर्थ है कि पहले से होने से भी आवश्यक नहीं कि शत्रु किसी शक्ति को रोकने के लिए अस्तित्व में रहे जैसे उत्तरी कोरिया . इसके अलावा सामूहिक संहार के हथियारों के प्रसार से काफी कुछ दांव पर लग गया है.. अब अमेरिका के राष्ट्रपति इस आशा में नहीं बैठे रह सकते कि अमेरिका के शहर नष्ट हो जायें. तीसरा- इस्लामवादी आतंकवादी जाल फैल जाने से शक्ति संतुलन अप्रभावी हो जाता है . अल –कायदा के विरुद्ध जवाबी कारवाई का कोई रास्ता नहीं है.
इन परिवर्तनों के अनुरुप राष्ट्रपति बुश ने जून 2000 में दूसरी नीति का विकल्प पहले हमला करना अपनाया. उन्होंने घोषणा कि की अमेरिका के लोग इस बात के लिए तैयार नहीं हैं कि शक्ति संतुलन विफल हो और युद्ध आरंभ हो.हमें युद्ध को शत्रु के यहां ले जाना चाहिए , उनकी योजनाओं को रोकना चाहिए और भयंकर खतरों के सामने आने से पहले उनका सामना करना चाहिए .बुश ने कहा कि अमेरिका की सुरक्षा के लिए जरुरी है कि अमेरिका के लोग आगे की सोचें और सक्षम बनें तथा हमारे जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जब आवश्यक हो पहले हमला करने वाले कदम उठाने को तैयार रहें.
पहले हमला करने का यह कदम अस्वाभाविक मामलों में ही उठाया जाना चाहिए विशेषकर उन शत्रुओं के लिए जो दुष्ट हैं. पेंटागन के एक ड्राफ्ट दस्तावेज के अनुसार संयुक्त परमाणु ऑपरेशन का सिद्धांत तैयार हो रहा है जिसके द्वारा सेना कमांडरों के लिए दिशा निर्देश की सहमति राष्ट्रपति से प्राप्त की जा रही है ताकि सामूहिक नरसंहार के हथियारों को पहले ही हमला करके नष्ट किया जा सके या सामूहिक नरसंहार के शत्रु के सामानों को नष्ट किया जा सके .
आजतक पहले हमला करने के विकल्प का उपयोग 2003 में सद्दाम हुसैन के विरुद्ध युद्ध में किया गया है ..बहुत संभव है कि इसे दूसरी बार इरान व उत्तरी कोरिया के विरुद्ध उपयोग में लाया जाय .
पहले हमला करने के सिद्धांत का समर्थन मैंने विचारों से और इराकी तानाशाह के मामले में इसे लागू करने में भी किया है..परंतु इसे लागू करने में इसकी विशेष कठिनाईयों से भी परिचित हूं. भूल की संभावना रहती है तथा अनिश्चितता से नहीं बचा जा सकता . 1967 में जब इजरायल के विरुद्ध तीन अरब राज्यों ने अपनी घेराबंदी की तो भी स्पष्ट नहीं था कि वे हमला करना चाहते हैं. सद्दाम हुसैन के पास सामूहिक नरसंहार के हथियारों का ढांचा था फिर भी उसकी योजना अस्पष्ट थी . इन कठिनाईयों के चलते उस सरकार पर विशेष जिम्मेदारी आती है जो पहले हमला करती है इसमें जितना संभव हो पारदर्शिता से काम लेना चाहिए न कि खुफिया चतुराई से . इसमें सबसे पहले अपने नागरिकों के समक्ष अपने कार्य की वैधानिकता को स्थापित करना चाहिए चूंकि अमेरिका के लोग दूसरों की बात को भी महत्व देते हैं इसलिए जिस देश पर कार्यवाई की जानी है उसकी जनसंख्या के विचारों को भी महत्व दिया जाना चाहिए इसी प्रकार प्रमुख देशों के विचारों को भी .इसी मामले में बुश प्रशासन पूरी तरह विफल रहा है . अमेरिका के आधे लोगों को ही संतुष्ट कर सका तथा अन्य देशों के बहुत कम लोगों को जिसमें इराक और ब्रिटेन के लोग भी शामिल हैं. यदि ईरान और उत्तर कोरिया के विरुद्ध पहले हमले की नीति अपनाई जाए तो जनकूटनीति को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए.
जहां तक लोकतंत्र को फैलाने की बात है तो बुश प्रशासन ने किसी भी धारणागत आधार को खंडित नहीं किया है. अपनी स्वतंत्रता के युद्ध के पश्चात् अमेरिका ने अपने उदाहरण से अन्य लोगों को प्रेरित किया है . प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात इस सरकार ने लोकतंत्र को बढ़ावा ही दिया है. इससे बढ़िया और क्या हो सकता है कि हस्तक्षेप की विशेषता के साथ इसे मध्यपूर्व में लागू किया जा रहा है. बाद वाले विषय में ध्यान देने वाली बात है कि नवंबर 2003 में राष्ट्रपति बुश ने संदर्भित किया कि पिछले 60 वर्षों से पश्चिम के देश मध्यपूर्व में स्वतंत्रता के अभाव की बात स्वीकार करते आए हैं इसलिए यह शाश्वत् आम सहमति वाली निष्पक्ष नीति है. वास्तव में स्थिरता पर जोर देने के कारण मध्यपूर्व एक अपवाद के रुप में स्वीकार हुआ. क्योंकि विश्व के अन्य क्षेत्रों के विपरीत वहां के जनमानस की धारणा पूरी तरह से अमेरिका विरोधी थी जबकि राष्ट्रपतियों, राजाओं और क्षेत्रीय अमीरों की भावना इसके विपरीत थी इस स्थिति में स्वाभाविक रुप से वाशिंगटन ने निष्कर्ष निकाला कि तानाशाहों के साथ काम करना अधिक ठीक है अपेक्षाकृत लोकतंत्र लाकर कट्टरपंथी तत्वों को सत्ता में लाने के .
यह भय उपयुक्त था जैसा कि 1978 की ईरान की क्रांति और अल्जीरिया के 1991 के चुनावों ने इसे सुनिश्चित कर दिया लेकिन इन आशंकाओं को दरकिनार करते हुए बुश ने इस बात पर जोर दिया कि दुनिया के अन्य देशों के लोगों की भांति मध्यपूर्व के लोगों को भी लोकतंत्र का लाभ उठाना चाहिए और इसमें परिपक्व होना चाहिए . उन्होंने इसकी प्रत्यक्ष तुलना यूरोप तथा एशिया में लोकतंत्र स्थापित करने में प्राप्त हुई सफलता से की .
जब इस दिशा में परिवर्तन की घोषणा की गई थी तभी मैंने इसका स्वागत किया था और अब भी कर रहा हूं. लेकिन यहां भी इसे लागू करने में मुझे कुछ कमियां दिखाई पड़ रही हैं. प्रशासन बहुत शीघ्र लोकतंत्र स्थापित करना चाहता है . उदाहरण के लिए सद्दाम हुसैन को हटाने और इराक में प्रधानमंत्री के चुनाव में केवल 22 महीने का अंतराल रहा . मेरे दृष्टिकोण में यह अंतराल 22 वर्षों का होना चाहिए था . जल्दबाजी में ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा हो जाती है . लोकतंत्र हर जगह समय लेता है और वह भी इराक जैसे स्थान पर जहां उसे अत्याचारी अधिनायकवादी बुनियाद पर खड़ा करना है . अप्रैल 2003 में मैंने लिखा था “ लोकतंत्र एक सीखी जाने वाली आदत है न कि प्रवृत्ति..सिविल समाज के आधारभूत ढ़ांचे जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता , आवागमन की स्वतंत्रता , एकत्र होने की स्वतंत्रता , कानून का शासन , अल्पसंख्यकों के अधिकार तथा एक स्वतंत्र न्यायपालिका जैसे तत्वों को चुनाव कराने से पहले स्थापित किया जाना चाहिए.”
इसके साथ ही व्यवहार में परिवर्तन भी आना चाहिए . सहने की संस्कृति , मूल्यों की समानता , विरोधी विचारों का सम्मान तथा नागरिक उत्तरदायित्व का बोध आदि.
जहां तक संपादक के अंतिम प्रश्न का सवाल है तो यद्दपि विश्व में लोकतंत्र प्रायोजित करने का या शेष विश्व को संपन्न बनाने का अमेरिका का कोई नैतिक दायित्व नहीं है लेकिन यह विदेश नीति का अच्छा उद्देश्य जरुर है . विश्व जितना अधिक लोकतंत्र का उपभोग करेगा हम उतने ही अधिक सुरक्षित होंगे . शेष लोग जितने अधिक संपन्न होंगे , हम भी उतने ही संपन्न होंगे . रास्ता दिखाने का बहादुरीपूर्ण लक्ष्य अवश्य हो लेकिन सतर्क ,धीमी और संतुलित नीति की आवश्यकता है. बुश प्रशासन के पास साहसी दृष्टि तो है लेकिन इसे लागू करने के लिए आवश्यक सतर्कता नहीं है .