19 अगस्त 2004 को उसी दिन ईराक में दो आतंकवादी नाटक आरम्भ हुए जब जिहादियों ने अलग-अलग 12 नेपाली कार्यकर्ताओं और दो फ्रांसीसी रिपोर्टरों को पकड़ लिया.यद्यपि उनकी नियति अलग-अलग थी,जहां नेपालियों की हत्या कर दी गई वहीं फ्रांसीसी रिपोर्टर अब भी कैद में हैं और जीवित हैं. ध्यान देने योग्य बात यह है कि दोनों पीड़ित देशों के लोगों ने स्वयं को असहाय अनुभव किया और अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया भी की.
जब नेपालियों का रसोईयों,वाचमैन,लाण्ड्री में काम करने वालों तथा मजदूरों का एक वर्ग जार्डन की सीमा पार कर ईराक में घुसा तो उसे हिंसक इस्लामवादी गुट अन्सार-अल-सुन्ना ने अगवा कर लिया. 31 अगस्त को एक इस्लामवादी वेबसाइट ने उनकी हत्या की चार मिनट की वीडियो दिखा दी.
नेपाल के लोगों ने इस क्रूरता पर प्रतिक्रिया करते हुए नेपाल के अल्पसंख्यक मुसलमानों पर अपना क्रोध निकाला. 31 अगस्त को सैकड़ों गुस्साये युवकों ने काठमाण्डू की एक मस्जिद को घेर लिया और उस पर पत्थर बरसाये. अगले दिन यह हिंसा और भी फैली तथा पांच हजार प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरे और “ हमें बदला चाहिए’, ‘मुसलमानों को दण्ड दो’,इस्लाम का पराभव हो जैसे नारे लगाने लगे. कुछ ने मस्जिद पर हमला बोल दिया, उसमें घुस गये,उसे लूट लिया और आग लगा दी.सैकड़ों कुरान सड़क पर फेंक दी गई और कुछ में आग लगा दी गई.
दंगाइयों ने राजधानी में मुसलमानों से जुड़ी चीजों को खूब लूटा जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक देशों के दूतावास और एयरलाइन ब्यूरो शामिल हैं. मुस्लिम स्वामित्व वाले टेलीविजन स्टेशन और मुसलमानों के घर भी लूटे गये. भीड़ ने मध्य पूर्व में नेपालियों को काम पर लगाने वाली एजेन्सी को भी नष्ट कर दिया. सेना के वाहनों के आने पर तथा देखते ही गोली मारने का आदेश देने के बाद हिंसा का दौर समाप्त हुआ. सेना की कारवाई में दो प्रदर्शनकारी मारे गये तथा 33 पुलिसकर्मियों सहित 50 लोग घायल हुये और कुल 20 मिलियन डालर की सम्पत्ति की क्षति हुई.
इस प्रकार शक्तिहीन, कुण्ठित, क्रोधित लोगों ने अपने अधिकारियों पर गुस्सा दिखाया तथा अपने निकट के निर्दोष लोगों को निशाना बनाया.
फ्रांस में भी प्रतिक्रिया कोई बहुत अलग नहीं थी. दो रिपोर्टरों की मौत के खतरे के बाद सरकार की ओर से अपने लोगों की जान बचाने के विशाल प्रयास किये गये और इस क्रम में फ्रांस के मुसलमानों को निशाना बनाने के स्थान पर उनका प्रयोग किया गया. पेरिस ने स्थानीय इस्लामवादियों से अपहरण की निन्दा कराई ताकि उनकी अपील पर आतंकवादी अपहृत व्यक्तियों को छोड़ दें.
इस प्रक्रिया में इस्लामी संगठनों ने देश की विदेश सेवा को अपने हाथों में ले लिया, वक्तव्य जारी किये और ऐसे कार्य किया मानों वे देश का प्रतिनिधित्व करते हों. l'Institut d'études politiques के बरटाण्ड बाडी ने शिकायत की कि फ्रांस के मुसलमान यहां के विदेश मन्त्रालय के स्थानापन्न बन गये हैं. इसी प्रकार अन्तर्राष्टीय स्तर पर पेरिस ने एक संक्षिप्त नोट जारी कर इजरायल के स्थान पर अरब के साथ तथा अमेरिका नीत गठबन्धन के स्थान पर सद्दाम हुसैन के साथ स्वयं को खड़ा दिखाया. फ्रांस के कूटनयिकों ने खुले तौर पर हमास और फिलीस्तीनी इस्लामिक जिहाद जैसे आतंकवादी संगठनों से सहायता मांगी.
ये प्रयास फ्रांस की तीस वर्ष की तुष्टीकरण की पराकाष्ठा हैं और जैसा कि नोरबर्ट लिपजीजिक ने अपने आलोचनात्मक विश्लेषण में कहा कि इससे इस्लामवादियों और आतंकवादियों को बड़ी विजय प्राप्त हुई है. लिपजीजिक की दृष्टि में फ्रांस धिम्मी की तरह व्यवहार कर रहा है(वे यहूदी और मुसलमान जो मुस्लिम सम्प्रभुता स्वीकार कर लेते हैं और बदले में उनकी रक्षा होती है.). फ्रांस ने सार्वजनिक रूप से स्पष्ट कर दिया है कि इसका स्तर धिम्मी का है और यह इस्लामवादियों के समक्ष समर्पण को तैयार है. इसके बदले में वे चाहते हैं कि आतंकवादी गतिविधियों से उनकी रक्षा की जाये.
यदि अपहृत व्यक्ति मुक्त हो जाते हैं तो तुष्टीकरण की यह नीति फ्रांस में तथा विदेशों में पुष्ट हो जायेगी. परन्तु किस कीमत पर. जैसा कि मेलबोर्न एज समाचार पत्र में टोनी पारकिन्सन ने लिखा है “ किसी भी लोकतन्त्र को निर्दोष लोगों की जान बचाने के लिये ऐसे रास्तों से नहीं गुजरना चाहिये”.
यूरोप द्वारा क्रमश: धिम्मी स्तर स्वीकार करने की बात कहने वाले पहले व्यक्ति इतिहासकार बाट योर का आकलन है कि मूलभूत परिवर्तन 1973 के अरब-इजरायली युद्ध के समय आरम्भ हुआ जब महाद्वीप अरब-इस्लामिक प्रभाव क्षेत्र की ओर मुड़ने लगा तथा परा अटलांटिक की परम्परागत एकता टूटने लगी.
बाट योर संकेत करते हैं कि यूरोप-अरब सहयोग लगभग पनप रहा है राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, तकनीकी हस्तान्तरण, शिक्षा, विश्वविद्यालय, रेडियो, टेलीविजन, प्रेस, प्रकाशकों और लेखकों के संगठन के स्तर पर. उनकी दृष्टि में इस परिवर्तन का समापन या तो यूरेबिया में होगा या फिर यूरोप अरब के अंगूठे के नीचे होगा.
हाल के घटनाक्रम पर लौटते हैं- इस नफरत भरी नेपाली हिंसा में स्वयं को सुरक्षित रखने की भावना परिलक्षित होती है हमें मारोगे तो बदले में हम भी मारेंगे. इसके विपरीत फ्रांसीसी प्रतिक्रिया काफी सुस्त रही –हमें मारो और बदले में हम ऐसा न करने की विनती करेंगे. यदि इतिहास से दिशा निर्देश लें तो नेपाली अपने विरुद्ध क्रूरता की पुनरावृत्ति होने दें ऐसी कम सम्भावना है जबकि फ्रांस ने बार-बार अपने साथ ऐसा होने दिया है.