6 महीने से भी कम अवधि में सम्पन्न होने वाले अमेरिका के मध्यावधि चुनावों में मध्य-पूर्व का मुद्दा सम्भवत: अभूतपूर्व भूमिका में होगा. ईराक युद्ध की प्रगति, ईरान की आणविक महत्वाकांक्षा की उचित प्रतिक्रिया और ईंधन के बढ़ते दाम सहित तीन मुद्दे प्रमुख रहने वाले हैं.
अपने महत्व के बाद भी ये मुद्दे तात्कालिक हैं जिनके सम्बन्ध में मतदाताओं के निर्णय का आधार सामयिक परिस्थितियाँ होंगी न कि दो मुख्य दलों की ईराक और ईरान की नीतियों के सम्बन्ध में.
अरब-इजरायल संघर्ष का चौथा मध्य-पूर्व मुद्दा इस बार कुछ फींका है, परन्तु चुनावों की दृष्टि से यह गहरे महत्व का विषय है . यह ऐसा दीर्घकालिक विषय है जो दो दलों को परिभाषित करने में सहायता करता है.
अमेरिका-इजरायल का आपसी बन्धन आज के विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के परिवार में विशेष सम्बन्ध है. विदेश नीति, रणनीतिक सहयोग , आर्थिक सम्बन्ध, बौद्धिक सम्पर्क , धार्मिक बन्धन और एक-दूसरे की घरेलू राजनीति में हस्तक्षेप के साथ अनेक क्षेत्रों में दोनों देशों के सम्बन्ध यदि अनोखे नहीं तो अस्वाभाविक अवश्य हैं. यह सम्बन्ध स्थानीय राजनीति तक भी पहुँच गया है तभी तो न्यूयार्कर के एक लेख में कहा गया था ऐसा लगता है मध्य-पूर्व या फिर किसी भी कीमत पर इजरायल न्यूयार्क का एक विभाग है.
इसके साथ ही पर्याप्त मात्रा में अमेरिकी (यहूदी, धर्मान्तरण समर्थक, अरब, मुसलमान, सेमेटिक विरोधी और वामपंथी) इजरायल के सम्बन्ध में ही नीति को आधार बनाकर मतदान करते हैं.
1948 में इजरायल के अस्तित्व में आने के बाद से डेमोक्रेट और रिपब्लिकन ने इजरायल के सम्बन्ध में अपने स्थान बदले हैं . 1948-70 के प्रथम काल में डेमोक्रेट यहूदी राज्य के प्रति अधिक सहानुभूति रखते थे जबकि रिपब्लिकन की सहानुभूति यहूदियों के प्रति कम थी. जहाँ डेमोक्रट आध्यात्मिक बन्धन पर अधिक जोर देते थे रिपब्लिकन की दृष्टि में इजरायल एक कमजोर और शीतयुद्ध की जिम्मेदारी था.
दूसरा काल 1970 में आरम्भ हुआ और 20 वर्षों तक चला . छह दिनों के युद्ध में इजरायल की असाधारण विजय के परिणामस्वरूप अमेरिका के रिपब्लिकन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इजरायल को सैन्य शक्ति केन्द्र और सहयोगी के रूप में देखा. इस नये घटनाक्रम के बाद रिपब्लिकन भी इजरायल के प्रति डेमोक्रेट की भाँति सकारात्मक हो गये. इस वास्तविकता को भाँपकर 1985 के एक शोध खण्ड में मैंने निष्कर्ष निकाला था, “ उदारवादियों और परम्परावादियों का इजरायल को समर्थन अरब के विरोध के सापेक्ष है”
1990 में शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद तीसरा काल आरम्भ हुआ. डेमोक्रट इजरायल को लेकर ठण्डे पड़ गये और रिपब्लिकन के साथ सम्बन्धों में गर्माहट आ गई.
वामपंथियों ने फिलीस्तीनी-अरब संघर्ष के उद्देश्य को अपने वैश्विक चिन्तन का मुख्य विषय बनाया( 2001 का डरबन सम्मेलन याद करें) जबकि दक्षिणपंथियों ने इजरायल के साथ अपने धार्मिक और राजनीतिक तन्तु अधिक मजबूत किये.
यह रूझान दिनों दिन बढ़ता ही गया. 2000 में इजरायल विरोधी वामपंथी कार्यकर्ता जेम्स जोगवी द्वारा एक सर्वेक्षण शोध में पाया गया है कि अरब-इजरायल संघर्ष में महत्वपूर्ण दलगत विभाजन स्पष्ट है क्योंकि रिपब्लिकन डेमोक्रेट की अपेक्षा अधिक इजरायल परस्त हैं. उदाहरण के लिये यह प्रश्न पूछे जाने पर कि मध्य-पूर्व के सम्बन्ध में अगले राष्ट्रपति की भूमिका क्या होनी चाहिये, 22 प्रतिशत रिपब्लिकन समर्थकों ने कहा कि वह इजरायल परस्त होना चाहिये जबकि केवल 7 प्रतिशत डेमोक्रेट ही इस विचार के थे.
अभी हाल में मॉल-अप सर्वेक्षण ने भी पाया है कि 72 प्रतिशत रिपब्लिकन और 47प्रतिशत डेमोक्रट क्रमश: फिलीस्तीनी अरब की अपेक्षा इजरायल के लोगों के प्रति सहानुभूति रखते हैं. इस सर्वेक्षण के आंकड़ों पर विस्तार से दृष्टि डालने पर और भी नाटकीय परिणाम सामने आते हैं. परम्परावादी रिपब्लिकन उदारवादी डेमोक्रेट की अपेक्षा इजरायल से पाँच गुना अधिक सहानुभूति रखते हैं.
इजरायल के प्रति डेमोक्रट का ठण्डा व्यवहार उनकी नव-परम्परावादियों के षड़यन्त्रकारी सिद्धान्तों और जिमी कार्टर, सिंथिया मैककोनी और जेम्स मोरान जैसे पार्टी के दिग्गजों के यहूदी विरोधी आक्रोश की व्यापक परिपाटी का हिस्सा है. शिर जिवे नामक एक पर्यवेक्षक के अनुसार कुछ समय के लिये डेमोक्रटों में सेमेटिक विरोधी भावना उफान पर है.
अमेरिका की राजनीति में यहूदी और अरब मुसलमानों का तत्काल समाधान करने की प्रवृत्ति के चलते यह रूझान तेजी से बढ़ रहा है. इससे मैं इसी अपेक्षा पर पहुँचा हूँ कि मुसलमान, अरब, इजरायल के प्रति शत्रुता रखने वाले डेमोक्रट को मतदान करेंगे जबकि यहूदी और यहूदी राज्य से मित्रता रखने वाले लोग रिपब्लिकन के पक्ष में मतदान करेंगे. इस तथ्य के प्रकाश में यह बात ध्यान रखने की है कि अमेरिकी मुसलमान यहूदियों के साथ अपनी सीधी प्रतिस्पर्धा देख रहे हैं. ब्रुकिंग इन्स्टीट्यूट के मुक्तेदार खान ने भविष्यवाणी की है कि शीघ्र ही अमेरिका में मुसलमान न केवल यहूदियों और अन्य नस्लीय लाबियों को वोट के मामले में पछाड़ देगें वरन् उनकी कीमत भी बढ़ जायेगी.
इन घटनाक्रमों का अमेरिका –इजरायल के सम्बन्धों पर बड़ा असर होने वाला है. दलगत राजनीति से परे नीतियों की निरन्तरता के स्थान पर व्हाइट हाउस में आने वाले दल के हिसाब से नीतियों में बड़ा परिवर्तन आता रहेगा. राजनीतिक सर्वानुमति टूटने से नुकसान इजरायल को होगा.