वर्तमान संघर्ष का सारा दोष इजरायल के शत्रुओं पर जाता है जिन्होंने अपने बर्बर उद्ददेश्य के लिए अमानवीय तरीकों का सहारा लिया . मैं कम से कम मानव क्षति किए हुए हमास और हिजबुल्लाह को अधिकतम पराजय देने की आशा रखते हुए गाजा और लेबनान में आतंकवादियों के विरुद्ध इजरायल की सशस्त्र सेना की हर प्रकार से सफलता की कामना करता हूँ .
इसके बावजूद भी पूरा स्तम्भ इजरायल के गलत निर्णय पर प्रकाश डालता है जिसके कारण उसे अनावश्यक युद्ध छेड़ना पड़ा और उस एकमात्र रास्ते का सुझाव देता है जिससे यह युद्ध जीता जा सकता है .
1948 से 93 के मध्य 45 वर्षों में इजरायल की रणनीतिक दृष्टि , चतुराईपूर्ण मेधा , तकनीकी आविष्कारों और सैन्य चतुराई ने पहले आक्रमण करने की क्षमता विकसित की .देश के इस कठिन अवसर में आर्थिक सहायता , इच्छाशक्ति और समर्पण ने इजरायल राज्य को कठोर राज्य के रुप में प्रतिष्ठित किया .
नेतृत्व ने शत्रु के मस्तिष्क और समय-समय पर विचार को भांपकर यहूदी राज्य को स्थायी सत्य ठहराकर उसमें पराजय का भाव व्याप्त कर दिया .इसके परिणामस्वरुप जिसने भी इजरायल के राज्य पर आक्रमण किया उसे आतंकवादियों के अपहरण , मृत सैनिक, अर्थव्यवस्थाके ठहराव और राजसत्ताओं में हस्तक्षेप के रुप में इसकी कीमत चुकानी पड़ी.
1993 आते – आते सफलता के इन कीर्तिमानों के चलते इजरायल के लोगों में अति आत्मविश्वास की भावना व्याप्त हो गई .उन्होंने इस असुविधाजनक तथ्य को भुलाकर कि फिलीस्तीनी शत्रुओं ने इजरायल को नष्ट करने का अपना उद्देश्य छोड़ा नहीं है ,निष्कर्ष निकाला कि वे जीत गए हैं .
लम्बे समय से नियंत्रित अति आत्मविश्वास और थकान की भावनायें बहने लगीं . यह निश्चय करके की अब काफी युद्ध हो चुका है और अपनी शर्तों पर वे युद्ध समाप्त कर सकते हैं उन्होंने शांति प्रक्रिया और क्षेत्र से हटने जैसे आयातित प्रयोग किये. उन्होंने अपने शत्रुओं को अर्ध सरकारी ढाँचा(फिलीस्तीनी अथॉरिटी) बनाने की अनुमति दी और सशस्त्र होने दिया (दक्षिणी लेबनान में अनुमानत: 12,000 हिजबुल्लाह सदस्य). उन्होंने शर्मनाक ढंग से पकड़े गये आतंकवादियों को अपह्रत लोगों के बदले छोड़ दिया.
इस प्रकार तुष्टीकरण और पीछे हटने की नीति के चलते इजरायल के शत्रुओं का उससे जाता रहा और वे इजरायल को कागजी शेर के रूप में देखने लगे. हिजबुल्लाह के नेता हसन नसरूल्लाह के शब्दों में, “ इजरायल जिसके पास आणविक शक्ति और क्षेत्र में सर्वाधिक सशक्त वायु सेना है मकड़ी के जाल से भी कमजोर है”.जैसा कि 2000 में मैंने लिखा था, “ इजरायल के प्रति उनके पूर्ववर्ती भय का स्थान अवमानना ने लिया है”. इजरायल ने शत्रुओं को प्रभावित करने वाली कार्रवाई की अवहेलना कर अपने बदले स्वरूप को और पुष्ट किया है. परिणामस्वरूप फिलीस्तीन और अन्य लोगों ने इजरायल को नष्ट करने के अपने पुराने उत्साह को फिर से प्राप्त कर लिया है.
13 वर्षों की इस क्षति को पूरा करने के लिये इजरायल को धीमी, कठोर , कुण्ठित कर देने वाली खर्चीली और उबाऊ प्रतिरोध की नीति पर लौटना होगा. इसका अर्थ हुआ कि समझौते की मूर्खतापूर्ण योजना का त्याग करना, सद्भाव की काल्पनिक आशा को छोड़ना, आतंकवादियों को छोड़ने की गैर जिम्मेदारी से बचना , स्वयं को थकाने और एकतरफा वापसी की बेवकूफी से बचना.
1993 से पूर्व के कठोर परिश्रम के चलते इजरायल ने अपने शत्रुओं से भी सम्मान अर्जित किया था. इसके विपरीत खण्ड-खण्ड में प्रदर्शित किये जाने वाले शक्ति प्रदर्शन से कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है. यदि इजरायल तुष्टीकरण और वापसी के अपने कार्यक्रम को पूर्व की भाँति ही जारी रखता है तो वर्तमान युद्ध गर्मी के तूफान की भाँति निरर्थक कसरत ही सिद्ध होगा. इजरायल के शत्रुओं को पता है कि कुछ दिनों या सप्ताहों तक झुकना होगा उसके बाद सब कुछ सामान्य हो जायेगा और इजरायल सरकार पारितोषक प्रदान करेगी, आतंकवादियों से सम्बन्ध स्थापित करेगी और राज्यक्षेत्र से वापस हटेगी.
प्रतिरोध को कुछ सप्ताह के छापों , नाकेबन्दी या एक चरण के युद्ध से पुन: स्थापित नहीं किया जा सकता. यह ऐसा अटूट संकल्प है जो दशकों के प्रयासों से व्यक्त होता है. सतही भावना से परे यदि इजरायल कुछ प्राप्त करना चाहता है तो उन्हें अपने व्यवहार में परिवर्तन लाना होगा. विदेश नीति पर गम्भीरतापूर्वक पुनर्विचार कर ओस्लो और क्षेत्र से वापसी की पद्धति के स्थान पर विजय के लिये प्रतिरोधक नीति का अनुपालन करना होगा.
1993 से यह पद्धति लगातार चल रही है. प्रत्येक भ्रम के बाद इजरायल अपराध भाव से ग्रस्त होकर तुष्टीकरण और वापस लौटने की नीति अपना लेता है. मुझे भय है कि गाजा और लेबनान की कार्रवाई शत्रु को पराजित करने के बजाय एक या दो सैनिकों को छुड़ाने पर केन्द्रित है. युद्ध का ऐसा उद्देश्य जो युद्ध के इतिहास में अनूठा है और ऐसा प्रतीत होता है कि मामला शीघ्र ही पुराने स्वरूप में लौट जायेगा.
दूसरे शब्दों में चल रही शत्रुता का निर्यात इस पर निर्भर नहीं करता कि लेबनान में क्या नष्ट होता है या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद क्या प्रस्ताव करती है वरन् इस पर निर्भर करती है कि इजरायल की जनता क्या सीखती है और क्या नहीं.