कभी सैनिक,नौसैनिक और वायुसैनिक युद्धों के परिणाम का निर्धारण करते थे परन्तु अब ऐसा नहीं है.आज टेलीविजन निर्माता, स्तम्भकार और राजनेता इस बात का निर्धारण करने की धुरी हो गये हैं कि पश्चिम किस प्रकार लड़ता है. इस परिवर्तन के गम्भीर परिणाम होने वाले हैं.
द्वितीय विश्व युद्ध जैसे परम्परागत संघर्ष के पीछे दो मुख्य अनुमान होते थे जिन पर कभी ध्यान नहीं दिया गया.
प्रथम-परम्परागत सैन्य बल एक सम्पूर्ण विजय के लिये युद्ध करता था. विरोधी पक्ष सक्षम सैनिकों , टैंको की फौज, नौसेना और वायुसेना तैनात करता था. लाखों नवयुवक युद्ध के लिये जाते थे जबकि आम जनता रशद की लगातार आपूर्ति को सुनिश्चित करती थी. रणनीति और खुफिया विभाग का भी महत्व था परन्तु जनसंख्या का आकार, अर्थव्यवस्था, और हथियार इससे भी अधिक महत्व रखते थे. युद्ध की प्रगति का आकलन कोई भी पर्यवेक्षक कुछ वस्तुनिष्ठ तत्वों जैसे स्टील की परिणति, तेल भण्डार, जहाज निर्माण और भूमि पर नियन्त्रण के आधार पर कर सकता था.
दूसरा अनुमान- प्रत्येक पक्ष की जनसंख्या अपने देश के नेतृत्व का समर्थन करती थी. देशद्रोहियों और विद्रोहियों की संख्या होते हुये भी बड़ी मात्रा में लोग शासक का समर्थन करते थे. सोवियत संघ के सम्बन्ध में यह बिशेष उल्लेखनीय है कि जब स्टालिन की सामूहिक हत्याकाण्ड के मनोविकार के बाद भी जनसंख्या ने इसे रूस माता का आह्रवान माना.
अब ये दोनों ही पद्धतियाँ पश्चिम में समाप्त हो चुकी हैं.
परम्परागत शत्रु बल के विरूद्ध सम्पूर्ण विजय की पद्धति का विचार लुप्त हो चुका है और इसके स्थान पर अप्रत्यक्ष गरिल्ला आपरेशन, उग्रवादी, इन्तिफादा और आतंकवाद की नई चुनौती सामने आ गई है. यह नई पद्धति अल्जीरिया में फ्रांसीसियों पर , वियतनाम में अमेरिकियों पर और अफगानिस्तान में सोवियत पर अपनाई गई. अब हाल में इसका प्रयोग इजरायल बनाम फिलीस्तीनी , ईराक में गठबन्धन सेना और आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध में हो रहा है.
इस परिवर्तन का अर्थ हुआ कि अब सैनिकों और शस्त्रास्त्रों की गणना कोई महत्व नहीं रखती और इसी प्रकार अर्थव्यवस्था और भूमि पर नियन्त्रण भी. यह उतार चढ़ाव भरा युद्ध पहले के युग में युद्ध से कहीं अधिक पुलिस कार्रवाई अधिक लगता. जिस प्रकार अपराधों की लड़ाई में सशक्त पक्ष अपने अधिकार वाले क्षेत्रों में व्यवस्थित तैनाती से लड़ता है जबकि कमजोर पक्ष अपने प्रभाव वाले क्षेत्र में किसी भी कानून की बुरी तरह अवज्ञा करता है.
दूसरा, सर्वानुमति और एकता की पुरानी भावना ढह रही है. यह प्रक्रिया पिछले सौ वर्षों से चल रही है (बोअर युद्ध में 1899-1902 में ब्रिटिश पक्ष के साथ यह आरम्भ हुआ). जैसा कि 2005 में मैंने लिखा, “ स्वामिभक्ति की मूलभूत अवधारणा में परिवर्तन हो चुका है. परम्परागत रूप से व्यक्ति की स्वामिभक्ति की कल्पना उसके जन्मस्थान के साथ की जाती थी. एक स्पेनिश या स्वीडिश अपने राज्य के प्रति स्वामिभक्ति माना जाता था तो फ्रेन्च अपने गणतन्त्र और अमेरिकन अपने संविधान के प्रति. यह कल्पना अब क्षीण हो रही है. अब इसका स्थान व्यक्ति के राजनीतिक समुदाय समाजवाद, उदारवाद, परम्परावाद या इस्लामवाद या अन्य विकल्पों ने ले लिया है. अब भौगोलिक और सामाजिक बन्धन पहले की अपेक्षा कम मायने रखते हैं.”
जैसे-जैसे स्वामिभक्ति के साथ खेल हो रहा है उसी प्रकार युद्ध का निर्धारण अब युद्ध क्षेत्र के स्थान पर सम्पादकीय विचारों से होने लगा है. अच्छे तर्क, स्पष्ट वाग्जाल, नाजुक प्रबन्धन और मजबूत मतदान संख्या किसी नदी या पहाड़ी को पार करने से अधिक महत्वपूर्ण हो गये हैं. एकता, मनोबल और आपसी समझबूझ अब नये स्टील,रबर, तेल और हथियार बन चुके हैं. जनमत निर्माता नये ध्वज और जनरल के कार्यालय बन चुके हैं. इसलिये अगस्त में मैंने लिखा था कि पश्चिमी सरकारों को जन सम्पर्क को अपनी रणनीति का एक अंग मानकर चलना चाहिये.
यहाँ तक कि ईरानी शासन द्वारा परमाणु अस्त्र प्राप्त करने सम्बन्धी मामले में भी पश्चिमी जनमत हथियारों से अधिक महत्वपूर्ण हैं. यदि अमेरिका और यूरोप के लोग एकजुट हुये तो वे ईरान को परमाणु अस्त्र प्राप्त करने से रोक पायेंगे. यदि वे एकजुट न हो सके तो ईरान पूरे उत्साह से अपने कार्यक्रम में आगे बढ़ेगा.
जैसा कि कार्ल वोन क्लाजविट्ज ने कहा है कि युद्ध का गुरूत्व केन्द्र सेना के बल से हटकर लोगों के ह्रदय और मस्तिष्क में आ चुका है. क्या ईरानी लोग परमाणु अस्त्र के परिणामों को स्वीकार करेंगे ? क्या ईराकी गठबन्धन सेना का मुक्तिदाता के तौर पर स्वागत करेंगे ? क्या यूरोप और कनाडा के लोग एक योग्य सैन्य बल चाहते हैं ? क्या अमेरिका के लोग इस्लामवाद को एक घातक खतरा प्रस्तुत करने वाले के रूप में देखते हैं?
गैर पश्चिमी रणनीतिकार राजनीति के महत्व को समझते हैं और उस पर ध्यान देते हैं. अल्जीरिया में 1962, वियतनाम में 1975 और अफगानिस्तान में 1989 की विजय सभी गिरती हुई राजनीतिक इच्छा शक्ति का परिणाम थीं. इस विषय को अल कायदा के दूसरे नम्बर के अमान अल जवाहिरी ने कूट शब्द देते हुये अपने जुलाई 2005 के पत्र में कहा कि इस्लामवादियों की आधे से अधिक लड़ाई का मैदान तो मीडिया है.
पश्चिम इस दृष्टि से सौभाग्यशाली है कि वे सैन्य और आर्थिक क्षेत्र में उन्नत हैं परन्तु इतना पर्याप्त नहीं है. अपने शत्रुओं के साथ इसे युद्ध के जनसम्पर्क पर भी ध्यान देना होगा.