कट्टरपंथी इस्लाम समस्या है और नरमपंथी इस्लाम उसका समाधान, मेरी इस बात के जवाब में एक प्रतिक्रिया अवश्यंभावी है कि नरमपंथी मुसलमान क्या चीज हैं? आखिर आतंकवाद के विरूद्ध इस्लामवादी प्रदर्शन कहाँ हो रहे हैं? इस्लामवादियों के साथ वे कहाँ युद्ध कर रहे हैं? और इस्लामी कानून का पुनरीक्षण उनकी ओर से कहाँ हो रहा है?
फिर भी मेरा उत्तर है कि नरमपंथी मुसलमानों का अस्तित्व है। यह मैं भी मानता हूँ कि उनका कोई आन्दोलन नहीं है परन्तु इस्लामवादी आक्रमण के मुकाबले वे मामूली संख्या में हैं तो अवश्य। इसका अर्थ हुआ कि मेरा तर्क है कि अमेरिकी प्रशासन तथा अन्य संस्थाओं को उन साहसी मुसलमानों की खोज करनी चाहिये, उनसे मिलना चाहिये, उन्हें सशक्त करना चाहिये , आगे बढ़ाना चाहिये, सशक्त करना चाहिये और उनका सत्कार करना चाहिये जो व्यक्तिगत रूप से अपने जोखिम पर अधिनायकवादियों का मुकाबला कर रहे हैं।
रैण्ड निगम द्वारा अभी प्रकाशित एक रिपोर्ट Building Moderate Muslim Networks में इस अवधारणा पर विचार किया गया है। एन्जेल रबासा, चेरिल बर्नार्ड, लोवेल एच.स्कावर्ज और पीटर सिकल नरमपंथी मुसलमानों के विकास और पोषण के नये विचार से चतुराईपूर्वक जूझते दिखाई देते हैं।
अपना आरम्भ उन्होंने इस तर्क के साथ किया है कि हाल के वर्षों में इस्लाम की कट्टरवादी और संकीर्ण व्याख्या के विकास में संस्थागत कारणों ने बड़ी भूमिका निभाई है। इनमें से एक कारण इस्लाम के वहाबी संस्करण के निर्यात में सउदी सरकार द्वारा पिछले तीन दशकों में मुक्त हस्त से की गई आर्थिक सहायता है। सउदी प्रयासों से समस्त मुस्लिम विश्व में धार्मिक अतिवादिता का विकास हुआ है जिससे इस्लामवादियों को शक्तिशाली बौद्धिक, राजनीतिक तथा अन्य नेटवर्क को विकसित करने का अवसर प्राप्त हुआ है। संगठनों और संसाधनों के असन्तुलन से स्वयं व्याख्या होती है कि प्राय: सभी मुस्लिम देशों में अल्पसंख्या में होते हुये भी अतिवादी अपनी संख्या के अनुपात के विपरीत अधिक प्रभाव छोड़ने में सफल रहे हैं।
यहाँ अध्ययन पश्चिमी देशों की भूमिका निर्धारित करते हुये कहता है कि जब तक संघर्ष की भूमि समतल नहीं हो जाती तब तक नरमपंथी सफलतापूर्वक कट्टरपंथियों को चुनौती नहीं दे सकते और पश्चिम नरमपंथी मुसलमानों के नेटवर्क के निर्माण में सहायता देकर भूमि को समतल कर सकता है।
यह सहज सा लगता है। यह 1940 के अन्त जैसा दिखता है जब सोवियत संघ समर्थक संगठनों ने समस्त यूरोप को भयाक्रान्त कर रखा था।
चारों लेखकों ने अत्यन्त करीने से शीतयुद्ध के आरम्भिक वर्षों में अमेरिका द्वारा नेटवर्क निर्माण के इतिहास को अनेक खण्डों में समझाया है ताकि उसका उपयोग वर्तमान समय में किया जा सके। (उदाहरण के लिये क्रेमलिन के लिये वामपंथी तमाचा सबसे बड़ा झटका होगा) इसमें अन्तर्निहित है कि मुसलमान अत्यन्त प्रभावी ढ़ंग से इस्लामवाद के विरूद्ध लड़ सकते हैं।
लेखकों की दृष्टि में इस्लामवाद के विरूद्ध संघर्ष में अमेरिका कुछ स्थानों पर मात खा रहा है विशेषकर नरमपंथियों को सशक्त करने में। उनकी दृष्टि में वाशिंगटन स्पष्ट रूप से निरन्तर निश्चित नहीं कर पा रहा है कि नरमपंथी कौन हैं और उनमें नेटवर्क निर्माण की सम्भावनायें कहाँ विद्यमान हैं और किस प्रकार इस नेटवर्क का निर्माण हो सकता है।
वे निश्चित रूप से सही हैं। इस मामले में अमेरिकी सरकार का रिकार्ड काफी दयनीय रहा है और इसको लेकर दो भ्रामक स्थितियाँ हैं कि क्या इस्लामवादी नरमपंथी हैं या उन्हें अपने पक्ष में लाया जाये। सरकार के कुछ महत्वपूर्ण व्यक्ति जैसे एफ.बी.आई निदेशक राबर्ट मुलर तृतीय, राज्य विभाग के उपसचिव कैरेन ह्यूज और लोकतन्त्र के लिये राष्ट्रीय प्रदाय के प्रमुक कार्ल गर्शमैन शत्रुओं के साथ सहयोग पर ही जोर देते दिखे।
इसके अतिरिक्त रैण्ड निगम अध्ययन चार अन्य सहयोगियों को भी आगे बढ़ाने पर जोर देता है- सेकुलरवादी, उदारवादी मुसलमान, नरमपंथी परम्परावादी तथा कुछ सूफी। यह विशेषरूप से पराराष्ट्रीय सेकुलरवादियों के उभरते नेटवर्क, गुटों और व्यक्तियों पर विशेष जोर देता है तथा इन उपेक्षित मित्रों के साथ सहयोग बढ़ाने की सत्य बात ही कहता है।
इसके विपरीत अध्ययन का प्रस्ताव है कि मध्य-पूर्व और विशेष रूप से अरब विश्व पर ध्यान देना कम किया जाये। क्योंकि अध्ययन का मानना है कि नरमपंथी नेटवर्क के निर्माण की दृष्टि से मुस्लिम विश्व के अन्य क्षेत्रों की तुलना में यह कम उर्वरा भूमि है। इस अध्ययन की अपेक्षा है कि दक्षिण-पूर्व एशिया, बाल्कन, पश्चिमी आप्रवासियों पर विशेष जोर देते हुये उनके विचारों को अरब विश्व में उपलब्ध कराया जाये। इस श्रेष्ठ विचार से एक शताब्दी पुरानी परिपाटी प्रभावित होती है जिसमें मध्य-पूर्व प्रभावी भूमिका में होता है परन्तु यह प्रयास होना चाहिये।
वैसे कठोर रैण्ड निगम ने नीचा भी दिखाया है। दुखद यह है कि अध्ययन ने विधि सम्मत इस्लामवादियों के साथ वार्ता करने के वाशिंगटन के प्रयासों की आलोचना से परहेज किया है और यूरोपीय सरकारों द्वारा इस्लामवादियों को मित्र मानने का अत्यन्त संभलकर समर्थन किया है। गलती से उसने अमेरिका आधारित प्रोग्रेसिव मुस्लिम यूनियन को सेकुलर इस्लाम का विकास करने वाला बताया है जबकि यह भी एक इस्लामवादी संगठन है।
Building Moderate Muslim Networks इस विषय पर अन्तिम वाक्य नहीं है, परन्तु इस्रलामवाद के विरूद्ध युद्ध में वाशिंगटन के नीति निर्धारण में यह एक सार्थक पहल अवश्य है। अध्ययन का सारगर्भित विषय, स्पष्ट विश्लेषण और साहसी सिफारिशों से यह बहस सार्थक ढ़ंग से आगे बढ़ी है और स्पष्ट रूप से यह पश्चिम की तत्काल की नीतियों पर गहराई से विचार करती है।