जेरूसलम सेन्टर फार पब्लिक अफेयर्स के जोएल फिशरमैन ने ‘The Big lie and the media war against Israel में एक दृष्टिसम्पन्न ऐतिहासिक शोधपूर्ण लेख में लिखा है कि यदि आज अरब का इजरायल विरोधी और यहूदी विरोधी जबर्दस्त प्रचार जर्मनी के तीसरे रीच (हिटलर के समय की संसद) की याद दिलाता है तो इसके पीछे कुछ तर्क हैं।
फिशरमैन अपनी बात उस भ्रमपूर्ण स्थिति से आरम्भ करते हैं जहाँ अपने नागरिकों की आतंकवाद, परम्परागत युद्ध और जनसंहारक हथियारों से रक्षा करने के इजरायल के प्रयास से उसे एक हिंसक पशु के समान चित्रित किया जा रहा है। 2003 के एक सर्वेक्षण के अनुसार यूरोपवासी इजरायल को विश्व शान्ति के लिये सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। मध्य-पूर्व का एकमात्र मुक्त और लोकतान्त्रिक देश किस प्रकार सबसे बड़ा संकट बन गया यह सनक वास्तविकता कैसे बन गई?
फिशरमैन इसके उत्तर में प्रथम विश्व युद्ध के समय में फिर से जाते हैं। यह कोई आश्चर्यजनक भी नहीं है क्योंकि शीतयुद्धोत्तर विश्लेषक धीरे-धीरे इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि यूरोप अब भी उस विध्वंस की छाया से इस कदर नहीं उबर पाया है कि इसकी तुष्टीकरण की नीति और अपनी संस्कृति के प्रति इसके दृष्टिकोण से यह प्रकट है।
फिर प्रथम विश्व युद्ध के दिनों में आते है जब सर्वप्रथम ब्रिटिश सरकार ने जन मीडिया की सम्भावनाओं की ओर कदम बढ़ाया और शत्रु तथा अपनी जनता के विचारों को नया आकार देने की आशा के साथ विज्ञापन का सहारा लिया।
केन्द्रीय शक्तियों के लोगों के लिये सन्देश थे कि वे अपनी सरकारों के प्रति समर्थन न रखें जबकि मैत्री राष्ट्रों को उत्पीड़न के ऐसे समाचार दिये जाते थे जिनमें से अधिकांश झूठ थे। इसमें ध्यान देने योग्य है कि ब्रिटिश अधिकारियों ने दावा किया कि जर्मनी के पास Corpse Conversion Factory है जो शत्रुओं के मृत सैनिकों को चुराकर उनसे साबुन तथा अन्य उत्पाद तैयार किये जाते हैं। युद्ध के निष्कर्ष के पश्चात जब ब्रिटिशवासियों को सत्य का पता चला तो फिशरमैन के अनुसार इससे संशयवादी, विश्वासघात और युद्धोपरान्त निराशावाद के परिणाम हुये।
ब्रिटेन द्वारा इस प्रकार गलत सूचना का द्वितीय विश्व युद्ध में खतरनाक परिणाम हुआ। इससे मित्र राष्ट्रों की जनता यहूदियों के विरूद्ध जर्मनी के अत्याचार की सूचनाओं को लेकर संशय करने लगी और उन्हें यह उसी प्रकार प्रतीत हुआ जैसा कि ब्रिटेन ने भयानक कथायें प्रचारित की थीं और इस कारण नाजी अधिकृत क्षेत्रों से आने वाली रिपोर्टों को अस्वीकार किया जाने लगा। ( इसी कारण ड्विट डी. आइजनहावर ने यन्त्रणा शिविरों की मुक्ति के तत्काल बाद उनकी वास्तविकता और साक्ष्यों को अभिलेखित करने के लिये उन शिविरों का दौरा किया)।
दूसरा हिटलर ने इस ब्रिटिश उदाहरण की प्रशंसा करते हुये अपनी पुस्तक मीन कैम्फ में लिखा, “ सर्वप्रथम ब्रिटिश प्रचार पर लोगों ने विश्वास नहीं किया और इसे सनक माना, बाद में यह लोगों की नब्ज पकड़ने में सफल रहा और अन्त में लोगों ने इस पर विश्वास करना आरम्भ कर दिया”। एक दशक उपरान्त यह प्रशंसा नाजियों ने बड़े झूठ में वास्तव में परिवर्तित कर ली और इसने वास्तविक स्वरूप धारण कर यहूदियों को उत्पीड़क और जर्मनों को उत्पीड़ित बनाकर प्रस्तुत कर दिया। उसके बाद प्रचार मशीन ने इस झूठ को जर्मनवासियों के मानस में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया।
जर्मनी की पराजय ने अस्थाई रूप से झूठ को वास्तविकता में बदलने की इस पद्धति को अप्रतिष्ठित कर दिया। परन्तु कुछ पलायन किये हुये नाजियों ने अपनी पुरानी सेमेटिक विरोधी महत्वाकांक्षा को जीवित रखा और इजरायल के साथ युद्धरत और यहूदी जनसंख्या को समाप्त करने के प्रयासरत देशों के माध्यम से इसे पूर्ण करने का प्रयास जारी रखा। हजारों नाजियों ने मिस्र में शरण ली जबकि कुछ अल्प मात्रा में ये लोग अन्य अरब भाषी क्षेत्रों विशेषकर सीरिया में गये।
फिशरमैन ने विशेषरूप से जोहान वोन लीर्स( 1902-65) के मामले का परीक्षण किया है। जो आरम्भिक दौर की नाजी पार्टी का सदस्य था तथा गोएबल्स का साथी था और आजीवन हिमलर का भी सहयोगी रहा तथा यहूदियों के विरूद्ध नरसंहारक नीतियों का मुखर प्रवक्ता रहा। 1942 में अपने एक लेख Judaism and Islam opposites में उसने मुसलमानों द्वारा यहूदियों को उत्पीड़न और तनाव की स्थिति में रखने के लिये मुसलमानों की प्रशंसा की। वान लीर्स 1945 में जर्मनी से बच निकला और एक दशक उपरान्त मिस्र में गया जहाँ वह इस्लाम में मतान्तरित हो गया और कालान्तर में नासिर के सूचना विभाग का सलाहकार हो गया।
फिशरमैन के अनुसार उसने वहाँ The protocols of the Elders of Zion के अरबी संस्करण को प्रायोजित किया, रक्त सम्बन्धों को जीवित किया, अनेक भाषा में सेमेटिक विरोधी प्रसारणों का आयोजन किया, समस्त विश्व में नव नाजियों को तैयार करना आरम्भ किया और यहूदी नरसंहार को अमान्य करने वालों की पहली पीढ़ी को प्रेरित करने के लिये गर्मजोशी से पत्र व्यवहार किये।
जमीनी स्तर पर किये गये इस कार्य का मूल्य 1967 में सामने आया जब 6 दिन के युद्ध में सोवियत और अरब गठबन्धन दोनों को पराजय मिली और उसके तत्काल बाद सोवियत-अरब प्रचार अभियान ने इजरायल के आत्म रक्षा के अधिकार को अस्वीकार करते हुए उसे आक्रान्ता के रूप में आरोपित कर सत्य को पलट दिया। स्पष्ट शब्दों में जैसा कि हिटलर ने मीन कैम्फ में विश्लेषण किया है कि यदि पहले सनक मानकर इस पर विश्वास नहीं किया गया तो भी अन्त में लोगों ने उस पर विश्वास किया।
आज के राजनीतिक पागलपन का बीते कल से स्पष्ट सम्बन्ध है । हो सकता है कि आज के यहूदी विरोधी कल इस बात पर लज्जा अनुभव करें कि उनके विचार नये स्वरूप में भले हों परन्तु वह हिटलर, गोएबल्स और हिमलर के नरसंहारक विचारों का विस्तार ही हैं। तब शायद वे अपने विचार छोड़ दें।