सद्दाम हुसैन को सत्ता से बाहर करने के उपरान्त अमेरिका के परम्परावादी मानते हैं कि पहले आक्रमण की नीति, शक्ति का सन्तुलन, शक्ति का अत्यधिक प्रयोग तथा कुछ अवसरों पर अकेले चलना अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा को सशक्त करने के लिये आवश्यक है।
उदारवादी इस सम्बन्ध में मतभेत रखते हैं। न्यूयार्क टाइम्स ने अपने सम्पादकीयों में उदारवादियों की ओर से चर्चा की है कि, “ राष्ट्रपति बुश की अकेले चलने की नीति और अत्यधिक आक्रामक पहल ने उनके उद्देश्यों पर विश्व की शत्रुता के हावी होने की आशंका है”। डेमोक्रेट पार्टी की ओर से नौ राष्ट्रपतीय प्रत्याशियों ने भी इसी प्रकार की आलोचना की है। ए.एफ.एल-सी.आई तथा अनेक स्तम्भकारों, धार्मिक नेताओं तथा अकादमिकों ने भी ऐसे ही प्रश्न उठाये हैं।
इराक में कुछ निश्चित प्रशासनिक कदमों से परे उदारवादियों ने आक्रामक अमेरिकी विदेश नीति की उपयोगिता पर व्यापक सन्दर्भों में प्रश्न खड़े किये हैं। उदाहरण के लिये बुश प्रशासन व्यावहारिक रूप से दो सन्धियों( इण्टरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट, क्योटो प्रोटोकाल) को निरस्त करने में अकेला पड़ गया था तथा दो प्राय: सम्पन्न सन्धियों( लघु अस्त्र तथा रासायनिक और जैविक हथियार) के सम्बन्ध में भी। इसने कुछ शक्तिशाली कदम भी उठाये ( रूस के साथ एबीएम सन्धि निरस्त करने में और नाटो को रूस की सीमाओं तक ले जाने में)।
वर्जीनिया विश्वविद्यालय के गेरार्ड अलेक्जेण्डर ने उदारवादियों के आरोपों को संक्षेप में बताया “ बुश अपने पुराने शत्रुओं के साथ शक्ति सन्तुलन स्थापित करने से अधिक नये शत्रुओं का निर्माण कर रहे हैं ”। इनमें से एक आरोप का खण्डन उन्होंने द वीकली स्टैण्डर्ड के 03 नवम्बर के अंक में किया है। अलेक्जेण्डर ने उदारवादियों के दावों के दो तत्वों की खोज की है- अन्य शक्तियाँ पहली बार अमेरिका के कार्य से भयभीत हैं और इसकी प्रतिक्रिया में वे वाशिंगटन के विरूद्ध कदम उठा रही हैं। आइये हम इन तत्वों की व्याख्या करें।
नया भय- पिछले पचास वर्षों के समय को देखते हुये अलेक्जेण्डर ने अनेक ऐसे अवसर खोज निकाले हैं जब अन्य शक्तियों ने स्वयं को वाशिंगटन से अलग-थलग रखा।
1950- अमेरिका के सहयोगियों ने केवल पश्चिमी यूरोप के समूह की स्थापना की। फ्रांस ने एक स्वतन्त्र नाभिकीय शक्ति अर्जित की।
1960- फ्रांस नाटो के सैन्य ढाँचे से बाहर आ गया । अनेक अमेरिकी सहयोगियों ने वियतनाम में अमेरिका के युद्ध का घोर विरोध किया।
1970- मध्य-पूर्व में अमेरिका की नीति का विरोध करने के लिये ओपेक ने अपना तेल अस्त्र अमेरिका के विरूद्ध प्रयोग किया।
1980- आज की परिस्थितियाँ रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल की भाँति हैं जब यूरोप ने रीगन को भला-बुरा कहा और अमेरिका के विरूद्ध थिएटर परमाणु अस्त्र, अमेरिका की मिसाइल रक्षा पद्धति की नीति, अमेरिका के सुधार सहित समुद्र सन्धि कानून के मुद्दों पर एक स्वर से वाशिंगटन का विरोध किया।
1990- व्यापार के मुद्दों पर यूरोपीय संघ का अमेरिका के साथ संघर्ष चलता रहा है। इसने नाटो से अलग एक एकीकृत सैन्य बल गठित करने की घोषणा भी कर दी।
वाशिंगटन के विरूद्ध कदम उठाना- अलेक्जेण्डर ने ध्यान दिलाया है कि जो लोग करते हैं उस पर ध्यान दिया जाना चाहिये न कि वे क्या कहते हैं। इसके आधार पर ही असली परीक्षण होता है कि लोग क्या सोचते हैं?
जनमत सर्वेक्षण और प्रतिद्वन्द्वी कूटनीतिक प्रयास कितने ही शोरगुल भरे या प्रतिकूल हों परन्तु वे कोई संकट उत्पन्न नहीं करते । संकट तब उत्पन्न होता है जब राज्य निम्नलिखित में से कोई एक या दो कदम उठाये-
अपनी सैन्य क्षमता में हथियारों की वृद्धि और सेना की तैनाती करे। ऐसा नहीं हुआ है। अलेक्जेण्डर ने पाया कि अमेरिका के किसी निर्णय के विरूद्ध भविष्य में सेना की तैयारी का छोटा सा भी लक्षण विद्यमान नहीं है। अमेरिका के कुल सैन्य खर्च का आधा या एक तिहाई ही यूरोपीय संघ के सदस्य देश अपने यहाँ खर्च करे हैं और पिछले दो वर्षों में यह अनुपात बदला नहीं है, यदि आतंकवाद से निबटने की प्राथमिकता के कुछ अवसरों को छोड़ दें तो।
स्पष्ट रूप से सैन्य गठबन्धन का निर्माण- यहाँ भी अलेक्जेण्डर ने देखा कि यूरोपीय संघ के सदस्य देशों या रूस और चीन के मध्य सहयोग के विस्तार का संकेत विजित हो चुके युद्ध से परे नहीं है। अमेरिका की हाल की कार्रवाइयों की प्रतिक्रिया शब्दों तक सीमित है और उसका सीमित महत्व है।
इसके बाद अलेक्जेण्डर का तर्क है कि सभी सामान्य स्तरों के आधार पर माना जा सकता है कि यूरोपीय तथा अन्य लोग इस प्रकार कार्य कर रहे हैं मानों उन्हें अमेरिका के प्रभाव से चिढ़ हो, अमेरिका की नीतियों के कुछ भाग का विरोध करते हों, प्रशासन द्वारा लिये निर्णयों के कुछ चुने हुये हिस्सों का विरोध करते हों और राष्ट्रपति बुश को उनके पूर्ववर्तियों की अपेक्षा नापसन्द करते हों। इनमें से किसी भी लक्षण को शत्रुता का लक्षण मुश्किल से स्वीकार किया जा सकता है।
इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि अमेरिका की नीतियों से वैश्विक भूमिका में अमेरिका की प्रतिष्ठा में कोई अन्तर आ रहा है। जैसा कि बुश के आलोचकों ने माना है । राजनीतक सन्दर्भों में इसकी व्याख्या करें तो इसका अर्थ हुआ कि आलोचकों को दूसरे मुद्दे ढ़ूँढने चाहिये।