क्या किसी ने 111 सितम्बर की क्षतियों और सद्दाम हुसैन के डरावने व्यवहार पर वामपंथियों के एकदम अलग दृष्टिकोण पर ध्यान दिया है ?
111 सितम्बर 2001 के तत्काल पश्चात जर्मन गीतकार कार्लेन्ज स्टाकहाउलन ने इसे ‘ समस्त सृष्टि में कला का महानतम कार्य बताया ’
कोलम्बिया विश्वविद्यालय में पक्के मार्क्सवादी एरिक फोनर ने इसे कमतर आंकते हुए घोषणा की वे इस बात को सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं “न्यूयार्क सिटी की इस डरावनी घटना या फिर प्रतिदिन व्हाइट हाउस द्वारा होने वाली लफ्फाजी भयानक परिणामकारी है ’’। नार्मन भेलर ने आत्मघाती अपहरणकर्ताओं को ‘मेधावी बताया।
अभी हाल में यह देखने में आया है कि लाखों युद्ध विरोधी प्रदर्शनकारियों ने सद्दाम हुसैन के विरूद्ध एक भी शब्द नहीं कहा और न ही उनके शासन में पीड़ित हत्या के शिकार हुए लोगों के प्रति एक भी सहानुभूति का शब्द निकाला। इसके बजाय उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति और व्रिटेन के प्रधानमंत्री के विरूद्ध आक्रोश प्रदर्शित किया।
आखिर अल - कायदा और बगदाद द्वारा क्रोध उत्पन्न करने वाली घटनाओं पर वामपंथी शान्त क्यों हैं।
हूवर इन्स्टीट्यूशन जर्नल पालिसी रिव्यू के हाल के अंक में अटलान्टा के लेखक ली हैरिस ने इसकी व्याख्या की है। उन्होंने ऐसा पीछे मुड़कर कार्ल मार्क्स की प्रमुख अवधारणा पूँजीवाद का पतन और उसके बाद घटने वाली घटनाओं को फिर से देखा है कि औघोगिक देशों में व्यवसाय का मुनाफा कम होगा,
बास लोग कर्मचारियों का उत्पीड़न करेगें
कर्मचारी गरीब हो जायेंगे
कर्मचारी अपने अधिकारियों के विरूद्ध विद्रोह करेंगे
कर्मचारी एक सामाजिक व्यवस्था बना लेगें
यहाँ पर सभी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि समय के साथ गरीब होते जायेंगे जो कि निश्चित रूप से नहीं हुआ।वास्तव में तो पश्चिमी कर्मचारी सम्पन्न हुए। 1950 में वामपंथियों में से अधिकांश को लगने लगा कि मार्क्स गलत सिद्ध हो गये । परन्तु समाजवादी क्रान्ति के अपने प्रत्याशित लक्ष्य को छोड़ने के स्थान पर उन्होंने इसे तोड़ना-मरोड़ना आरम्भ किया। हैरिस के अनुसार इस क्रम में औद्योगिक देशों के कर्मचारियों को छोड़कर गरीब देशों की पूरी जनसंख्या की ओर क्रान्ति संचालन के लिए देखा।
अब वर्ग का स्थान भूगोल ने ले लिया। डिपेन्सिया विचार नामक इस नई पहुँच के बाहर प्रथम विश्व ( अमेरिका उनमें से सबसे आगे ) तृतीय विश्व युद्ध का शोषण कर मुनाफा प्राप्त कर रहा है। वामपंथियों ने विचार दिया कि अमेरिका गरीब देशों का उत्पीड़न करता है । और नाम चोमस्की के अनुसार तो अमेरिका “अग्रणी आतंकवादी देश है।
अपने दावे के पुष्टि के लिए मार्क्सवादियों ने पश्चिम के विरूद्ध तृतीय विश्व के खड़े होने की अधीरता से प्रतीक्षा की। दुखद रूप से 1950 से लेकर सही मायनों में क्रान्ति ईरान की 1978 – 79 की क्रान्ति रही। इसका अन्त उग्रवादी इस्लाम की सत्ता प्राप्ति और वामपंथियों के नेपथ्य में जाने रूप में हुआ ।
उसके पश्चात 11 सितम्बर 2001 को घटना हुई जिसका अर्थान्वयन मार्क्सवादियों ने किया कि अन्तत: तृतीय विश्व ने अमेरिकी उत्पीड़न का पलटवार किया है। हैरिस ने व्याख्या की कि वामपंथियों की कल्पना के अनुसार यह हमला वैश्विक दृष्टि से ऐतिहासिक था और नये क्रान्तिकारी युग का सूत्रपात था। ’’
कोई आसानी से संकेतित कर सकता है कि आत्मघाती अपहर्ता पृथ्वी के असन्तुष्ट राज्यों के प्रतिनिधित्व करते हैं और उनका लक्ष्य समाजवाद नहीं वरन् उग्रवादी इस्लाम है। वामपंथी वास्तविक समाजवाद के थोड़े से भी संकेत के लिए इस कदर व्याकुल हैं कि ऐसे अक्रोशी विवरणों की अवहेलना कर रहे हैं। इसके बजाय इसने अमेरिका से युद्ध करने के लिए अल-कायदा, तालिबान और सामान्य तौर पर उग्रवादी इस्लाम की प्रशंसा की। वामपंथियों ने उग्रवादी इस्लाम की गैर समाजवादी आदतों जैसे धार्मिक कानून को थोपना कार्यस्थल से महिलाओं को निकालना, ब्याज के पैसे पर प्रतिबन्ध , व्यक्तिगत धन को प्रोत्साहन और नास्तिकों के उत्पीड़न की अवहेलना कर डाली।
वामपंथियों की इस प्रशंसात्मक भावना के वशीभूत उन्होंने 11 सितम्बर 2001 पर शान्त प्रतिक्रिया दी। 1997 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले इटली के मार्क्सवादी डैरियो फो ने ब्याख्या की “महान वाल स्ट्रीट पर अनुमान लगाने वाले ऐसी अर्थव्यवस्था में सने हैं जो प्रतिवर्ष लाखों लोगों को गरीबी से मारती है तो फिर क्या यदि न्यूयार्क में 20,000 लोग मर गये ’’।
ऐसा ही सद्दाम हुसैन के साथ जिसके बर्बर गुण उनके लिए कम मायने रखते हैं क्योंकि वह अमेरिका से टक्कर ले रहा है और उसकी अवहेलना कर रहा है। उनकी दृष्टि में जो कोई भी ऐसा करता है वह बुरा नहीं हो सकता भले ही अपने पड़ोसी को जीत ले या अपनी प्रजा पर अत्याचार करे।
सद्दाम हुसैन के बचाव के लिए वामपंथी सड़कों पर उतरते हैं और इस मामले में अपनी सुरक्षा तथा इराकियो के भाग्य से कोई मतलब नहीं रखते और इस आशा में रहतें हैं कि यह दैत्य समाजवाद को निकट ला देगा । संक्षेप में 11 सितम्बर 2001 तथा सद्दाम हुसैन के विरूद्ध युद्ध से वामपंथियों का मानसिक दीवालियापन उजागर हो गया है ।