यूरोप का भविष्य खेल में है। क्या यह मुस्लिम विश्व का भाग बनकर यूरेबिया में परिवर्तित हो जायेगा। या फिर यह एक अलग सांस्कृतिक ईकाई के रूप में ही रहेगा जैसा कि यह पिछ्ली सहस्राब्दी से है। या फिर दो सभ्यताओं के संश्लेषण से कोई नया सृजन हो सकेगा।
यह उत्तर अत्यंत महत्व का है। वैसे तो यूरोप समस्त विश्व की 7 प्रतिशत जनसंख्या है परंतु 1450 से 1950 तक अच्छे या बुरे कारणों से यह विश्व में परिवर्तन की धुरी रहा है। भविष्य में इसका विकास किस ढंग से होता है यह समस्त मानवता को प्रभावित करेगा और विशेष रूप से उन बेटी रूप देशों को जो कि अब भी इससे निकटता से जुडी हैं और इस प्राचीन महाद्वीप से उनके मह्त्वपूर्ण सम्बन्ध हैं।
मेरी दृष्टि में यूरोप के लिये तीन सम्भावित मार्ग हैं- मुस्लिम वर्चस्व, मुसलमानों की अस्वीकृति या फिर सद्भावपूर्ण आत्मसातीकरण ।
कुछ विश्लेषकों की दृष्टि में मुस्लिम वर्चस्व अवश्यम्भावी है। ओरियाना फलासी के अनुसार, “ यूरोप धीरे-धीरे इस्लाम का एक प्रांत बनता जा रहा है और इस्लाम का उपनिवेश” । मार्क स्टेन के शब्दों में , ‘ इक्कीसवीं शताब्दी में अधिकाँश पश्चिम अपना अस्तित्व बचा नहीं रख सकेगा और बहुत सा इसका हिस्सा प्रभावी रूप से हमारे समय में लुप्त हो जायेगा यदि बहुतायत यूरोपीय देश नहीं तो अधिकाँश ’। ऐसे लेखकों ने यूरोप के इस्लामीकरण के तीन तत्वों की ओर संकेत किया है : आस्था, भू-जनांकिकी और विरासत के प्रति भाव।
यूरोप में विशेष रूप से कुलीन वर्ग में सेकुलरिज्म की दृढ भावना के चलते लोग यहूदी-ईसाई परम्परा से अलग-थलग होते जा रहे हैं, चर्च खाली रहते हैं और इस्लाम के प्रति आकर्षण बढ रहा है। इसके विपरीत मुसलमान एक धार्मिक जुनून दिखाते हैं जो कि जिहादी भावना में परिवर्तित होता है, गैर-मुसलमानों पर श्रेष्ठता का भाव रखते हुए इस प्रत्याशा में रहते हैं कि यूरोप इस्लाम में धर्मांतरित होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
आस्था में इस विरोधाभास के भू-जनांकिकी स्तर पर भी परिणाम हैं। ईसाइयों की जनसंख्या का औसत प्रत्येक महिला 1.4 का है जो कि अपनी जनसंख्या को कायम रखने के लिये आवश्यक संख्या से एक तिहाई कम है दूसरी ओर मुसलमानों का जन्मदर काफी ऊँचा है। एम्स्टर्डम और रोटेरडम दो ऐसे शहर हैं जो 2015 तक मुस्लिम बहुल शहर के रूप में परिवर्तित हो जायेंगे। वर्तमान अस्तित्व में पेंशन योजना के कारण पर्याप्त कर्मचारियों को नौकरी देने के लिये यूरोप को लाखों आप्रवासियों की आवश्यकता होगी और इस कारण आनुपातिक दृष्टि से बडी संख्या में मुसलमान निकटता के कारण, औपनिवेशिक सम्बन्धों और मुस्लिम बहुल देशों में अशांति के चलते यूरोप में प्रवेश कर रहे हैं।
इसके अतिरिक्त अनेक यूरोपीय लोग अपनी इतिहास, परम्परा से लगाव नहीं रखते। फासीवाद, नस्लवाद और साम्राज्यवाद के चलते बहुत से लोगों के अन्दर यह भावना घर कर गयी है कि उनकी संस्कृति का मह्त्व आप्रवासियों से कमतर है। इस आत्म अवमानना की प्रवृत्ति का सीधा असर आप्रवासियों पर होता है यदि यूरोपवासी स्वयं अपने मूल्यों को छोड रहे हैं तो क्योंकर आप्रवासी अपनायें। पश्चिम के अस्तित्वमान मूल्यों के प्रति मुस्लिम हिचकिचाहट और विशेषकर यौन सम्बन्धी मामलों का परिणाम यह होता है कि मुस्लिम जनसंख्या आत्मसातीकरण का तीव्र प्रतिरोध करती है। इस प्रथम मार्ग का तर्क यही दिखाता है कि यूरोप अंततः उत्तरी अफ्रीका का विस्तार मात्र बनता जा रहा है।
परंतु पहला मार्ग अवश्यंभावी नहीं है। मूल यूरोपीय इसका प्रतिरोध कर सकते हैं औए इस पूरे महाद्वीप में उनकी जनसंख्या 95 प्रतिशत है। वे किसी भी समय आग्रह पूर्वक नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं। उन्हें मुसलमानों को अपने जीवन मूल्यों पर एक खतरा बनते देखना चाहिये।
यह भावना पहले ही फ्रांस के हिजाब विरोधी कानून, गीर्ट वाइल्डर्स की फिल्म फितना, आप्रवास विरोधी राजनीतिक दलों की बढती शक्ति में देखी जा सकती है। यूरोप में स्वदेशी भाव से एक आन्दोलन स्वरूप ग्रहण कर रहा है जैसे जैसे आप्रवास का विरोध करने वाले राजनीतिक दल इस्लाम और मुसलमानों पर अधिक ध्यान दे रहे हैं। ऐसे राजनीतिक दलों में ब्रिटिश नेशनल पार्टी, बेल्जियम की व्लामस बेलांग, फ्रांस की फ्रंट नेशनल, आस्ट्रिया की फ्रीडम पार्टी, नीदरलैण्ड की पार्टी फार फ्रीडम, डेनमार्क की पीपुल्स पार्टी और स्वीडिश डेमोक्रेट्स।
इन राजनीतिक दलों का उत्थान होता रहेगा जैसे जैसे आप्रवास बढ्ता जायेगा और मुख्यधारा के दल उनसे यह मुद्दा छीन नहीं लेते। यदि राष्ट्रवादी दल सत्ता में आते हैं तो बहुत सम्भव है कि वे बहुसंस्कृतिवाद को अस्वीकार कर दें, आप्रवास में कटौती करें, आप्रवासियों को वापस भेजने को प्रेरित करें, ईसाई संस्थानों का समर्थन करें, स्वदेशी यूरोपीय जन्मदर को बढायें और बडे स्तर पर पारम्परिक तरीकों को पुनःस्थापित करने का प्रयास करें।
इसके साथ ही मुसलमानों की सतर्कता भी बढेगी। अमेरिकी लेखक राल्फ पीटर्स ने एक स्थिति को रेखांकित किया जिसके अनुसार, “ अमेरिका की नौपरिवहन नौकायें सतर्क हैं और ब्रेस्ट,ब्रेमरहैवेन या बारी तक जाकर यह सुनिश्चित कर रही हैं कि यूरोप के मुसलमानों को सुरक्षित बाहर निकाला जा सके। पीटर्स अपनी बात समाप्त करते हुए कहते हैं कि यूरोप की क्रूरता के चलते इसके मुसलमान उधार के समय पर जी रहे हैं। उनके अनुसार मुसलमान इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उन्हें सामूहिक रूप से समाप्त नहीं किया जा रहा है या उन्हें मारा नहीं जा रहा है केवल बाहर भेजा जा रहा है। निश्चित रूप से मुसलमान अपने इस भाग्य पर चिंतित होगा और 1980 से ही वे मुखर होकर बोल रहे हैं कि मुसलमानों को गैस चेम्बर में भेजा जा रहा है।
स्वदेशी यूरोपवासियों द्वारा हिंसा तो अपनाने की सम्भावना नहीं है परंतु राष्ट्रवादी प्रयास कम हिंसक तरीके से प्रयोग में आयेंगे, यदि कोई हिंसा का आरम्भ करेगा तो वह मुसलमान होंगे। वे पहले ही बहुत से हिंसक कार्यों में लिप्त हैं और सम्भव है इसे आगे और बढायें। उदाहरण के लिये सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि 5 प्रतिशत मुसलमान 7\7 में हुए बम विस्फोट को स्वीकृति देते हैं। संक्षेप में यूरोप द्वारा अपनी संस्कृति के प्रति यह पुनः आग्रह एक घरेलू स्तर पर चल रही कलह को और गति प्रदान करेगा और इसके परिणामस्वरूप 2005 में फ्रांस में हुए दंगों का और घातक स्वरूप देखने को मिलेगा।
सर्वाधिक आदर्श स्थिति यह है कि स्वदेशी यूरोपीयन और आप्रवासी मुसलमान आपस में सौहार्दपूर्वक रहने का कोई मार्ग ढूँढ लें और एक नया संश्लेषण तैयार करें। 1991 में फ्रांस के एक अध्ययन ने इस आदर्शवादी विचार को बढाया था। इन सभी आशावादी विचारों के बीच परम्परागत बुध्दि विद्यमान है जैसा कि 2006 में Economist के एक नेता ने कहा था कि कम से कुछ समय के लिये तो यूरेबिया की सम्भावना एक भय व्याप्त करने वाला विचार है।
यह अधिकांश राजनेताओं, पत्रकारों और अकादमिकों का विचार है परंतु वास्तव में इसका आधार नहीं है। हाँ स्वदेशी यूरोपीयन अपनी ईसाई आस्था को फिर से ढूँढ सकते हैं, अधिक संतान उत्पन्न कर सकते हैं और अपनी विरासत के प्रति फिर से लगाव पैदा कर सकते हैं। हाँ वे गैर मुस्लिम आप्रवास को प्रेरित कर सकते हैं और पहले से यूरोप में निवास कर रहे मुसलमानों को आत्मसात होने को प्रेरित कर सकते हैं। हाँ मुसलमान ऐतिहासिक यूरोप को स्वीकार कर सकते हैं । परंतु न केवल इस दिशा में कोई विकास नहीं हो रहा है वरन इसकी सम्भावनायें भी बहुत कम हैं। विशेष रूप से युवक मुसलमान अपनी शिकायत विकसित कर रहा है और ऐसी महत्वाकांक्षा पाल रहा है जो उसके पडोसी से मेल नहीं खाती।
कोई भी इस सम्भावना को लगभग खारिज कर सकता है कि मुसलमान ऐतिहासिक यूरोप को स्वीकार करेंगे और इसके साथ आत्मसात होंगे। अमेरिका के स्तम्भकार इस बात से सहमत हैं, “ पश्चिमी यूरोप के किसी भविष्य को इसके अतिरिक्त कि उसका इस्लामीकरण हो जाये या गृहयुद्ध हो जाये कल्पना करना अत्यंत कठिन है”
परंतु इन दो शेष बचे मार्गों में से कौन सा मार्ग यह महाद्वीप अपनायेगा? इस सम्बन्ध में कोई भविष्यवाणी करना अत्यंत कठिन है क्योंकि संकट अभी आया नहीं है। परंतु यह बहुत दूर भी नहीं है। सम्भवतः एक दशक में महाद्वीप का विकास स्पष्ट होगा जब यूरोप मुस्लिम सम्बन्ध अपना स्वरूप ग्रहण करेगा।
यूरोप की स्थिति का असाधारण स्वभाव भी इस भविष्यवाणी को कठिन बना देता है। इतिहास में कभी भी एक प्रमुख सभ्यता इस प्रकार शांतिपूर्वक विलीन हो गयी और न ही इस प्रकार लोग अपनी विरासत पर फिर से दावा करने के लिये उठ खडे हुए। यूरोप की असाधारण स्थितियाँ इसके बारे में भविष्यवाणी को लगभग असम्भव बना देती हैं। यूरोप के साथ हम सभी एक अबूझ क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं।