प्रश्न है कि नए अमेरिकी राष्ट्रपति का कार्यकाल 209 हफ्तों का है, बावजूद इसके, सिर्फ 2 हफ्तों के बाद ही, मध्यपूर्व और इस्लाम जैसे गूढ़ मसले पर उनके नज़रिए को समझने की कोशिश भला क्यों की जाए। लेकिन बराक हुसैन ओबामा के हावभाव को देखते हुए ये बेहद जरुरी हो जाता है। वैसे इस मसले पर चर्चा की ठोस वजह और भी हैं।
एक विरोधाभासी कीर्तिमान- नए अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के अतीत के तार यहू दियों के कट्टर विरोधी माने जानेवाले- अली अबुनीमाह, राशिद खालिदी और एडवर्ड सैड जैसे लोगों से जुड़े रहे हैं। ओबामा का संपर्क इस्लामिक देशों के साथ-साथ सद्दाम हुसैन के कार्यकाल से भी रहा है। लेकिन राष्ट्रपति की कुर्सी संभालने के बाद, ओबामा ने केन्द्रीय वामपंथी नज़रिया रखने वाले लोगों की नियुक्तियां की हैं और वे स्वयं पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जैसी ही भाषा बोल रहे हैं।
मध्यपूर्व और इस्लाम की महत्वपूर्ण भूमिका- अमेरिकी राष्ट्रपति का पदभार संभालने के साथ ही अपने उद्धघाटन भाषण में ओबामा ने मध्य पूर्व और इस्लाम की चर्चा की। ओबामा ने पहला फोन फिलिस्तीन अथॉरिटी के महमूद अब्बास को किया और तो और मध्य पूर्व के कामकाज की देखरेख के लिए उन्होंने आनन-फानन में दो विशेष दूत भी नियुक्त कर डाले। ओबामा ने अपना पहला साक्षात्कार भी मुस्लिम देशों के नम्बर एक चैनल अल-अरबिया को देना जरुरी समझा ।
आखिर इसका तात्पर्य क्या निकाला जाये –
अफगानिस्तान और इराक – कोई आश्चर्य इराक से पहले अफगानिस्तान उनकी प्राथमिकता में है। (आप देखेंगे कि मैं इराक से सेना वापसी पर कार्य करूँगा)
ईरान- ईरान से बातचीत की इच्छा भी जताई लेकिन ईरान के कार्य को अस्वीकार भी किया( " ईरान ने इस प्रकार कार्य किया है कि जो शांति और सम्पन्नता के उपयुक्त नहीं है)
अरब- इजरायल संघर्ष- इस विषय पर उनका दृष्टिकोण साश्चर्य पूर्ण रहा । ओबामा इज़रायल की सुरक्षा पर चिंतित तो दिखे लेकिन हमास के ख़िलाफ इजरायल के युद्ध की निन्दा नहीं की। ओबामा ने अब्दुल्ला योजना की प्रशंसा की, 2002 की अब्दुल्ला योजना जिसके अरब इजरायल का अस्तित्व स्वीकार करने को तैयार है लेकिन जून 1967 की इजरायल की सीमाओं की शर्त पर। यह योजना शेष सभी कूटनीतिक योजनाओं से भिन्न हैं क्योंकि इसमें अनेक कमियाँ हैं और यह पूरी तरह अरब सद्भावना पर निर्भर है। 10 फरवरी के इजरायल के आगामी चुनाव में ऐसी सरकार की सम्भावना है जो इस योजना को स्वीकार नहीं करेगी और इसके चलते संयुक्त राज्य अमेरिका और इजरायल से सम्बन्धों में फिसलन आ सकती है।
आतंक के विरुद्ध युद्ध- एक विश्लेषक की राय में ओबामा आतंक के विरुद्ध युद्ध को समाप्त कर रहे लेकिन यह एक अनुमान है। इसी वर्ष 22 जनवरी को ओबामा ने इस युद्ध को- 'हिंसा और आतंक के विरुद्ध संघर्ष ' कह कर परिभाषित करने की कोशिश की बाद में इसे आतंक के विरुद्ध युद्ध कहा। निश्चित तौर पर वे इसे आतंक के विरुद्ध युद्ध कहने से बचना चाह रहे हैं।
वैसे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश भी आतंक के खिलाफ युद्ध को समय-समय पर अपने ढ़ंग से परिभाषित करने का प्रयास करते रहे हैं कोशिश की। बुश ने एक बार इस युद्ध को कट्टरपंथ के विरुद्ध युद्ध बताते हुए कहा कि यह वृहत्तर मध्य पूर्व में लडी जा रही है। ओबामा में निरंतरता का अभाव दर्शाता है कि वे बुश की नीति में परिवर्तन से अधिक निरंतरता को जारी रखना चाहते हैं।
मुस्लिम विश्व तक पहुँचने की नीति- ओबामा की राय में-वो अमेरिका और मुस्लिम देशों के रिश्ते को पहले जैसा बनाने समर्थक हैं। वो अमेरिका और मुस्लिम देशों के बीच 20-30 साल पहले जैसा रिश्ता बनाने के पक्षधर हैं, जो आपसी सम्मान और भरोसे की बुनियाद पर खड़ा हो। लेकिन ओबामा की इस इच्छा पर इतिहास के पन्नों को पलटना जरुरी हो जाता है। 1989 अमेरिका- मुस्लिम देशों के लिए एक खराब साल रहा और 1979 सबसे बुरा साल रहा। अगर सिर्फ 1979 की ही चर्चा की जाए तो, खुमैनी ने इसी साल ईरान के शाह को न सिर्फ बेदखल किया बल्कि तेहरान में अमेरिकी दूतावास को भी अपने कब्जे में ले लिया था। सिर्फ यही नहीं इसके बाद मक्का में इस्लामिक घुसपैठ के बाद आठ मुस्लिम देशों में अमेरिकी मिशन पर हमले भी हुए।
लोकतंत्र- 20-30 साल पहले के अच्छे रिश्ते का ढोल पीटकर ओबामा एक खास संदेश देने के लिए मेहनत कर रहे हैं। ओबामा की इस कोशिश को फौद आजमी के शब्दों में और भी बेहतर समझा जा सकता है- 'ओबामा मुस्लिम देशों के साथ व्यावहारिक राजनीति के जरिए रोजमर्रा के धंधे निपटाना चाहते हैं।' मतलब साफ है- पहले जॉर्ज बुश के कार्यकाल में स्वतंत्रता के एजेंडा के नाम पर कट्टरवादी ताकतों ने 3 साल चैन की बंसी बजाई और अब ओबामा के कार्यकाल में इन कट्टरवादी ताकतों की तो जैसे लॉटरी निकल आई है, बेशक अब वो जश्न मना सकते हैं।
आखिरी बात ओबामा के व्यक्तिगत तौर पर इस्लाम से जुड़े होने की है।
राष्ट्रपति पद के लिए अपने चुनाव प्रचार के दौरान ओबामा इस्लाम से अपने रिश्ते की चर्चा करने से लगातार बचते रहे थे, उन्हें डर था कि उनपर रुढ़िवादी होने का आरोप कहीं न ल जाए और अमेरिकी जनता उन्हें नकार न दे। ओबामा इस्लाम से इतनी दूरी रखना चाह रहे थे कि अपने नाम में हुसैन के शब्द के इस्तेमाल से भी वो नाराज हो रहे थे, उनके प्रतिद्वंदी जॉन मैक्केन को उस समय माफी मांगनी पड़ी जब एक जनसभा के दौरान वक्ता ने ओबामा को बराक हुसैन ओबामा कह कर संबोधित किया । लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ओबामा के विजयी होने के बाद सारे नियम-कानून तुरंत बदल गए। राष्ट्रपति पद का शपथ लेते समय उन्हें स्वयं को बराक हुसैन ओबामा कहने में कोई हिचक महसूस नहीं हुई। साथ ही ओबामा ने अपने पहले साक्षात्कार में ये घोषणा भी कर डाली कि- 'मेरे परिवार में मुस्लिम सदस्य हैं और मैं कई मुस्लिम देशों में रह चुका हूं।'
साफ है कि ओबामा को मुस्लिम कार्ड का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करना आता है। तभी तो चुनाव प्रचार के दौरान बोझ लगने वाला मुस्लिम तत्व राष्ट्रपति बनते ही विरासत दिखने लगा और मुस्लिमों का भरोसा जीतना जरुरी लगने लगा। वैसे ये बातें ओबामा के व्यक्तित्व का पोल खोलने के लिए काफी हैं। डायना वेस्ट की राय इसको और भी साफ कर देती है, डायना के मुताबिक- 'नेपोलियन के बाद ओबामा जैसा पश्चिम दुनिया में कोई दूसरा नेता नहीं हुआ जो मुस्लिमों से रिश्ता बनाने के लिए इस बेशर्मी के साथ लार टपकाए।'
कुल मिलाकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को ठेंगा दिखाकर ओबामा ने अमेरिकी राजनीति में एक बड़े बदलाव का इशारा किया है, जो निश्चित तौर पर दुर्भाग्यपूर्ण है। बराक ओबामा ने जनता के जिस भाग को अपना सन्देश देने के लिये क्षमाप्रार्थी का भाव अपनाया है और परिवर्तन दिखाया है वह एक चिंताजनक और मूलभूत दिशा है।