1989 में सलमान रश्दी के एक उपन्यास प्रकाशित होने से लेकर अमेरिका में 2010 में "Everyone Draw Muhammad Day" का विरोध करने तक एक ही रुझान विकसित हुआ दिखाई दिया। यह पश्चिमी लोगों द्वारा इस्लाम के विरुद्ध कुछ करने या कहने से आरम्भ होता है। इसकी प्रतिक्रिया में इस्लामवादी नाम लेकर पुकारते हैं और आक्रोश प्रकट करते हैं , क्षतिपूर्ति की माँग करते हैं, कानूनी कार्रवाई की धमकी देते हैं और हिंसा की धमकी देकर वास्तविक हिंसा भी करते हैं। इसके विपरीत पश्चिमी लोग कुछ भी स्पष्ट नहीं बोलते, गलत बोलते हैं और अंत में झुक जाते हैं। इसके साथ ही प्रत्येक विवाद के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विषय अवश्य चर्चा में आ जाता है।
इस क्रम में मैं दो बिन्दुओं के बारे में चर्चा करना चाहूँगा। पहला तो यह कि पश्चिम का इस्लाम और मुसलमानों के बारे में चर्चा करने , उनकी आलोचना करने और यहाँ तक कि उसे चिढाने का अधिकार क्षीण हुआ है। दूसरा, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समस्या का अत्यंत छोटा पहलू है दाँव पर कुछ कहीं अधिक लगा है जो कि निश्चय ही हमारे समय का सबसे मह्त्वपूर्ण प्रश्न है, क्या पश्चिमी लोग अपनी ऐतिहासिक सभ्यता को इस्लामवादी आक्रमण के समक्ष बरकरार रख पायेंगे या फिर वे इस्लामी संस्कृति और कानून के समक्ष समर्पण कर द्वितीय श्रेणी के नागरिक होकर रह जायेंग़ॆ?
इस्लामवादी आक्रमण का युग 14 फरवरी 1989 को आरम्भ हुआ जब ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोला रुहोला खोमेनी ने पाकिस्तानी की भाँति टेलीविजन पर दिखते हुए दक्षिण एशिया मूल के मुस्लिम लेखक सलमान रश्दी के उपन्यास के प्रति हिंसात्मक ढंग से उत्तर दिया। उनकी पुस्तक का शीर्षक The Satanic Verses कुरान की ओर संकेत करता है और इस्लाम की संवेदनाओं के समक्ष एक प्रत्यक्ष चुनौती प्रस्तुत करता है और इसकी सामग्री तो और भी समस्या उत्पन्न करती है। रश्दी द्वारा इस्लाम के ईशनिन्दित प्रकाशन से उद्विग्न खोमेनी ने एक आदेश जारी कर दिया जिसके आज तक हो रहे प्रभाव को देखते हुए उसे उद्धृत करना उचित होगा, " मैं विश्व के सभी समर्पित मुसलमानों को सूचित करता हूँ कि The Satanic Verses नामक शीर्षक की पुस्तक का लेखक और उसका प्रकाशन, मुद्रण और संकलन इस्लाम , पैगम्बर और कुरान के प्रतिकूल है इस कारण जो भी इस प्रकाशन में शामिल हैं या फिर जो इसकी सामग्री से परिचित हैं उन सभी को मृत्युदण्ड दिया जाता है। मैं सभी पवित्र मुसलमानों से आह्वान करता हूँ कि वे तत्काल इसे लागू करें जहाँ कहीं भी वे मिलें ताकि आगे चलकर कोई भी मुस्लिम पवित्र प्रतीकों का अपमान करने का दुस्साहस न कर सके। ईश्वर जानता है कि जो भी इस रास्ते पर मरेगा वह शहीद होगा। "
इसके अतिरिक्त जो भी इस पुस्तक के लेखक तक पहुँच रखता है परंतु उसे मारने का अधिकार नहीं रखता उसे अन्य लोगों को यह बात सूचित करनी चाहिये ताकि उसे अपने कृत्य के लिये दण्डित किया जा सके।
इस अभूतपूर्व आदेश में जिसे कि उस व्यक्ति ने जारी किया जो कि सरकार का मुखिया नहीं है और एक दूसरे देश में निवास करने वाले उपन्यास लेखक के लिये जारी हुआ जो कि किसी अन्य देश में निवास करता है तो इससे सभी आश्चर्य में पड गये ईरानी सरकारी अधिकारी से रश्दी स्वयं भी। किसी ने भी कल्पना नहीं की थी कि एक काल्पनिक कथा के लिये लेखक को ईरान के शासक का कोपभाजन बनना पडेगा जिस देश से रश्दी का कुछ ही लेना देना था।
इस आदेश के बाद इटली, नार्वे और संयुक्त राज्य में पुस्तक विक्रय केन्द्रों पर शारीरिक आक्रमण हुए और इस पुस्तक के अनुवादकों पर नार्वे, जापान और तुर्की में भी आक्रमण हुए और सबसे अंतिम घटना में एक होटल में आगजनी में अनुवादक और 36 अन्य लोग शिकार हुए। इसके अतिरिक्त मुस्लिम बहुल देशों में 20 लोग मारे गये जो कि मुख्य रूप से दक्षिण एशिया के देश थे। उसके बाद जब क्रोध शांत हुआ और जून 1989 में खोमेनी का देहान्त हो गया तो उनकी मृत्यु के बाद यह गलत रूप से कहा जाने वाला फतवा अपरिवर्तनीय हो गया।
इस आदेश में चार प्रमुख तत्व हैं। पहला, " इस्लाम के प्रति विरोध, पैगम्बर और कुरान के प्रति विरोध" की बात करके खोमेनी ने पवित्र विषयों को चर्चा में ला दिया जिनकी अवमानना बिना मृत्युदंड के नहीं रहते।
दूसरा, " उन सभी को शामिल कर जो कि प्रकाशन में शामिल थे या फिर सामग्री के बारे में जानते थे" उन्होंने न केवल कलाकार वरन समस्त सांस्कृतिक आधारभूत ढाँचा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी जिसमें कि प्रकाशन केन्द्र से जुडे हजारों कर्मचारी, विज्ञापनदाता, वितरक कम्पनियाँ और पुस्तक विक्रय केन्द्र शामिल थे।
तीसरा, रश्दी की हत्या का आदेश देकर " यह सुनिश्चित किया कि ऐसा करने का कोई दूसरा साहस न करे"। खोमेनी ने यह भी निश्चित किया कि उनका उद्देश्य केवल एक लेखक को दण्डित करना नहीं है वरन ऐसी पुनरावृत्ति को बचाना भी है।
अंत में, इस बात की माँग करके कि जो स्वयं हत्या करने में सक्षम नहीं हैं वे उन्हें सूचित करें खोमेनी ने विश्व भर के मुसलमानों से कहा कि इस्लामी पवित्रता को बनाये रखने के इस कार्य में अनौपचारिक रूप से खुफिया एजेंसी के रूप में कार्य करें।
ये चारों ही विशेषतायें आपस में मिलकर जिस चीज का निर्माण करती हैं उसे मैं रश्दी नियम कहता हूँ। दो दशक के उपरांत भी वे उसी प्रकार हैं।
इस आदेश ने पश्चिम के लिये अनेक उदाहरण निर्धारित किये। एक विदेशी राजनीतिक नेता ने सफलतापूर्वक राज्य की सत्ता की सीमाओं की परम्परा की अवहेलना की। एक मजहबी नेता ने अपनी इच्छा से पश्चिम के सांस्कृतिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप किया और वह भी बिना किसी कीमत या विरोध के। एक मुस्लिम नेता ने एक गैर मुस्लिम बहुल देश में शरियत को स्थापित करने के उदाहरण को स्थापित किया। इस अंतिम बिन्दु पर समय समय पर पश्चिम के देश खोमेनी के एजेंट सिद्ध हुए ।आस्ट्रिया की सरकार ने एक व्यक्ति के ऊपर जेल की सजा घटा दी जिसने रश्दी नियम की अवहेलना की। जबकि फ्रांस और आस्ट्रेलिया ने इसी मामले में ऐसी सजा दी जिसका अर्थ जेल था। सबसे आश्चर्य की बात है कि कनाडा, ब्रिटेन, नीदरलैण्ड , फिनलैंड और इजरायल में वास्तव में रश्दी नियम का उल्लंघन करने वालों को जेल की सजा दी गयी। उस समय को याद करने के लिये प्रयास करना पडता है जब 1989 से पूर्व रश्दी नियम से पूर्व के निर्दोष दिनों में पश्चिम के लोगों को इस्लाम और मुस्लिम के सम्बन्ध में कुछ भी कहने की स्वतंत्रता थी।
रश्दी नियम ने पश्चिम में रहने वाले मुस्लिम लोगों के जीवन पर तत्काल प्रभाव डाला, जिससे उनके अपमान और हिंसा को लेकर होने वाली प्रतिक्रिया पर काफी बल आ गया। स्वीडन से लेकर न्यूजीलैंड तक इस्लामवादियों ने प्रसन्न प्रतिक्रिया दी कि शताब्दियों तक रक्षात्मक मुद्रा में रहने के बाद मुसलमानों को अपनी आवाज मिली है और उन्होंने अपनी इस प्रसन्नता को प्रकट किया कि वे पश्चिम को चुनौती दे सकते हैं। अधिकतर हिंसा अन्धाधुन्ध तरीके की थी कि जो 11 सितम्बर, बाली, मैड्रिड , बेसलान और लंदन के प्रकार की थी कि जिहादियों ने उन्हें ही निशाना बनाया जो उनकी दृष्टि में अपनी सीमा पार कर रहा था। TheReligionOfPeace.com ने उन दस्तावेजों का संकलन किया है जो सिद्ध करते हैं कि समस्त विश्व में प्रतिदिन पाँच अन्धाधुन्ध इस्लामवादी आक्रमण होते हैं।
यह बात अधिक सामान्य नहीं है लेकिन अत्यन्त अवरोध उत्पन्न करने वाली है कि हिंसा का शिकार उन्हें बनाया जाता है जो कि रश्दी नियम का उल्लंघन करते हैं। यदि हम उदाहरण के द्वारा इस रुझान को केवल एक देश तक सीमित करें । डेनमार्क, अक्टूबर, 2004 में कार्स्टन नेबुर इंस्टीट्यूट में कोपेनहेगन विश्वविद्यालय के निदेशक को विश्वविद्यालय छोडते ही कुछ अपरिचित लोगों द्वारा मारा गया और लातों से मारा गया। उसे कहा गया कि उसने कुरान से कुछ उद्धृत किया जो कि काफिर होने के नाते उसे करने का अधिकार नहीं था। अक्टूबर, 2005 में जाइलैण्ड पोस्टेन के सम्पादक फ्लेमिंग रोज को मोहम्मद का कार्टून दिखाने के कारण धमकी दी गयी। कार्टून बनाने वाले दो लोगों को भूमिगत होना पडा। उनमें से एक कुर्ट वेस्टर्ग़ार्ड अपने घर में हुए एक आक्रमण मे बाल बाल बच गया। मार्च 2006 में नासिर खादेर नामक एक इस्लामवाद विरोधी राजनेता को किसी इस्लामवादी ने धमकी दी कि यदि खादेर सरकार में मंत्री बना तो उसे और उसके मंत्रालय को उडा दिया जायेगा।
डेनमार्क का अनुभव तो अत्यंत जटिल है। वाल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार " समस्त यूरोप में दर्जनों लोग मुस्लिम अतिवादियों की धमकी से या तो छुपे हैं या फिर पुलिस सुरक्षा में हैं"। यहाँ तक कि पोप बेनेडेक्ट 16 को पूर्वी रोमन के एक सम्राट को इस्लाम के सम्बन्ध में उद्धृत करने के कारण अनेक धमकियाँ मिल गयी थीं। नीदरलैण्ड में ही अकेले राजनेताओं ने एक वर्ष के अन्दर 121 मौत की धमकियाँ मिलने की बात कही है। नवम्बर 2004 में एम्स्टर्डम में एक फिल्म निर्माता, समाचार पत्र में स्तम्भ लेखक, टाक शो प्रस्तोता थियो वान गाग को इस्लाम की खिल्ली उडाने के आरोप में जान से मार दिया गया जिससे समस्त देश सन्न रह गया।
आमतौर पर पश्चिम के लोग इस हिंसा को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चुनौती मानते हैं। लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता यदि लडाई का मैदान है तो बडा युद्ध तो पश्चिमी सभ्यता के आधारभूत सिद्धांतों से जुडा है। इस्लामवादी आक्रामकता मुख्य रूप से तीन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये कटिबद्ध है जिसे प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त नहीं किया जाता और यह इस्लाम की आलोचना को रोकने से अधिक दूर तक जाता है।
पहला लक्ष्य है, इस्लाम की महत्ता को स्थापित करना। खोमेनी द्वारा अपनी माँग में " इस्लाम, पैगम्बर और कुरान" की त्रिमूर्ति को पवित्र सिद्ध करने में अंतर्निहित था कि एक मजहब को विशेष विशेषाधिकार प्राप्त हो और उसे विचारों के बाजार से पूरी तरह अलग थलग कर दिया जाये। इस्लाम को वह लाभ मिलेगा जो अन्य मजहबों को नहीं मिला है। जीसस की खिंचाई हो सकती है मोंटी पैथन की लाइफ आफ ब्रायन या फिर टेरी मैकनिली की कार्पस क्रिस्टी में लेकिन क्या कोई अपनी पुस्तक का शीर्षक be careful with Muhammad दे सकता है।
इसी में दूसरा लक्ष्य छुपा हुआ है- मुस्लिम प्रभुता और पश्चिमी हीनभावना। इस्लामवादी सामान्य रूप से पश्चिम के विरुद्ध आक्रामक ढंग से व्यवहार करते हैं जबकि ऐसा इस्लाम के प्रति पश्चिम के मामले में नहीं है। वे पश्चिमी संस्कृति के विरुद्ध खुले रूप में अवमानना परक बाते करते हैं जैसा कि अल्जीरिया के एक इस्लामवादी ने इसके विरुद्ध अश्लील बात कही। उनका मुख्यधारा का मीडिया ऐसे आक्रामक कार्टून प्रकाशित करता है जिसके मुकाबले फ्लेमिंग रोज का कार्टून कुछ नहीं है। वे खुले रूप में यहूदी, ईसाई, हिन्दू और बौद्ध को अपमानित करते हैं। वे यहूदियों को केवल इसलिये मारते हैं कि वे यहूदी हैं जैसा कि पाकिस्तान में डैनियल पर्ल को मार दिया गया, फ्रांस में सेबेस्टैयन सेलाम और इलान हलीमी को और संयुक्त राज्य अमेरिका में पामेला वेचर और एरियल सेलोक को। चाहे पश्चिमी लोग ध्यान न देते हों या फिर भयभीत रहते हों कि वे असंतुलन को सहन कर जाते हैं कि जब मुस्लिम पश्चिमी लोगों पर आक्रमण कर जाते हैं जबकि स्वयं ऐसे किसी आक्रमण से बच जाते हैं।
क्या पश्चिमी लोगों को इस असंतुलन को स्वीकार करना चाहिये, इससे तो धिम्मी स्थिति बरकरार रहेगी। इस इस्लामी अवधारणा के अनुसार , " पुस्तकीय लोग" एकेश्वरवादी जैसे ईसाई और यहूदी मुस्लिम शासन में अपने मजहब का पालन करें और उन पर अनेक अवरोध भी होंगे। इस समय में धिम्मी स्थिति के अनेक लाभ भी हैं ( 1945 तक यहूदी ईसाई क्षेत्र की अपेक्षा इस्लाम क्षेत्र में अधिक सुविधायें प्राप्त करते थे)परंतु इसका प्रमुख आशय गैर मुस्लिमों को अपमानित और लाँक्षित करना है और यहाँ तक कि यह मुस्लिम सर्वोच्चता को स्थापित करना है।
धिम्मियों को अतिरिक्त आयकर देना होता है, वे सरकार या सेना में शामिल नहीं हो सकते और अनेक विधिक अयोग्यताओं से भी गुजरना होता है। कुछ समय और स्थान पर धिम्मी गधे पर चढ सकते हैं लेकिन घोडे पर नहीं, अलग प्रकार के कपडे पहनते और बडी अवस्था के धिम्मी को भी मुस्लिम बालक के मार्ग से कूद कर अलग होना होता। धिम्मी स्थिति के कुछ उदाहरणों को गाजा, पश्चिमी तट , सउदी अरब, इराक, ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, मलेशिया और फिलीपींस में देखा जा सकता है। निश्चित रूप से लन्दनिस्तान और इससे परे कुछ क्षेत्र इस दायरे में आते दिख रहे हैं।
इसके बदले में धिम्मी स्थिति को पुनः स्थापित करना इस्लामवाद की तीसरी और अंतिम मह्त्वाकाँक्षा की पूर्ति की दिशा में एक कदम है और वह है शरियत कानून को लागू करना। इस्लाम के सम्बन्ध में किसी प्रकार की चर्चा को प्रतिबन्धित करना इस लक्ष्य को ही प्राप्त करना है। संक्षेप में, इस्लाम के सम्बन्ध में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इस्लामी व्यवस्था को लागू करने के विरुद्ध एक प्रमुख सुरक्षा है। अपनी सभ्यता को जारी रखने के लिये इस्लाम के प्रति खुली बहस एक आवश्यक तत्त्व है।
शरियत व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन दोनों को ही नियमित करता है। इसके व्यक्तिगत आयाम में कुछ अत्यन्त व्यक्तिगत मामले जैसे शरीर की सफाई, यौन सम्बन्ध, बच्चों की देखभाल, पारिवारिक सम्बन्ध, कपडे और आहार आते हैं। सार्वजनिक जीवन में शरियत का सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्ध से, व्यापारिक लेनदेन से, आपराधिक दण्ड से, महिलाओं और अल्पसंख्यकों की स्थिति , गुलामी, शासक की पहचान , न्यायपालिका, कर निर्धारण और युद्धनीति से होता है। संक्षेप में , इस्लामी कानून शौचालय की सफाई से लेकर युद्ध संचालन तक सभी कुछ से सम्बन्धित होता है।
इसके बाद भी शरियत पश्चिमी संस्कृति के गम्भीर पहलुओं से मेल नहीं खाती। महिलाओं और पुरुषों के मध्य असमानता का सम्बन्ध , मुस्लिम और काफिर का सम्बन्ध , स्वामी और गुलाम का एक साथ नहीं रह सकते और न ही उन्हें समानता का अधिकार होता है। हरम एकस्त्री व्यवस्था के साथ नहीं रह सकता। इस्लामी सर्वोच्चता का सिद्धांत मजहब की स्वतंत्रता के विपरीत है। एक सम्प्रभु ईश्वर लोकतंत्र की आज्ञा नहीं दे सकता।
इस्लामवादी इस्लामी विधि को सर्वत्र लागू करने के लक्ष्य के साथ विजय प्राप्त करते हैं। परंतु उनका इस विषय में मतभेद है कि इसे हिंसा के द्वारा प्राप्त किया जाये ( बिन लादेन की प्राथमिकता) , अधिनायकवाद ( खोमेनी), या फिर राजनीतिक रूप से व्यवस्था के साथ खेल खेल कर ( स्वीडन के बौद्धिक तारिक रमादान)। जैसे भी इसे प्राप्त किया जाये एक बार इस्लामवादियों ने शरियत की व्यवस्था प्राप्त कर ली तो वे प्रभावी ढंग से पश्चिमी संस्कृति को इस्लामी संस्कृति में परिवर्तित कर देंगे। अमेरिका के सन्दर्भ में यदि कहें तो संविधान के स्थान पर कुरान का अर्थ है कि दो शताब्दियों से चला आ रहा संयुक्त राज्य अमेरिका अस्तित्व में नहीं रहेगा।
दूसरे शब्दों में रश्दी नियम को स्वीकार करने में अंतर्निहित है कि एक दिन पूरी तरह शरियत का कानून लागू हो जायेगा। यदि खोमेनी अपने मार्ग पर प्रशस्त रहे तो हम में से जो लोग पश्चिमी संस्कृति का मूल्य रखते हैं वे शरियत के विरुद्ध तर्क नहीं करते। इस्लाम के सम्बन्ध में किसी बहस को रोकने का क्या परिणाम होता है इसे जानने के लिये 2007 में मुस्लिम काउंसिल आफ ब्रिटेन नामक ब्रिटेन के एक अग्रणी इस्लामवादी संगठन की रिपोर्ट पर ध्यान देना होगा। Towards Greater Understanding नामक शीर्षक के द्वारा यह सलाह दी गयी कि ब्रिटिश अधिकारियों को किस प्रकार जनता द्वारा कर प्रदान करने वाले स्कूलों में मुस्लिम छात्रों के साथ व्यवहार करना चाहिये।
एम सी बी के द्वारा विद्यालयों में ऐसा वातावरण बनाया जाता है कि "मुस्लिम छात्रों को यह अनुमान न लगाना पडे कि समाज में विकास करने के लिये उन्हें अपनी पह्चान के साथ समझौता करना पडे या फिर अपनी पहचान छोड्नी पडे या फिर अपनी मजहबी आस्था और मूल्य त्यागने पडें"। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये एम सी बी ने स्कूलों के लिये उन परिवर्तनों का सुझाव दिया जो उन्हें पूरी तरह परिवर्तित कर सउदी संस्थाओं में परिवर्तित कर देंगे उनमें से कुछ सुझाव इस प्रकार हैं-
- प्रार्थना- 1-प्रार्थना से पूर्व हाथ धुलने के लिये अतिरिक्त बोतल या पानी का जार 2-प्रार्थना में छात्रों और छात्राओं को अलग अलग किया जाये। विद्यालयों को इस बात की व्यस्वथा करनी चाहिये कि एक बाहरी व्यक्ति जो विद्यालय में आकर शुक्रवार की नमाज पढवा सके।
- शौचालय- सफाई के लिये पानी का जार या बोतल उपलब्ध हो।
- सामाजिक परम्परा- विपरीत लिंगी के साथ हाथ मिलाने की बाध्यता न हो चाहे वह छात्र हो या अध्यापक हो।
- दिनचर्या- प्रमुख मुस्लिम पर्व ईद पर सभी के लिये अवकाश हो।
- छुट्टी मनाना- इस्लामी अवकाश को मनाने के लिये गैर मुस्लिम बच्चों और अभिभावकों को शामिल किया जाये। रमजान के अवसर पर इसकी भावना के लिये शेष लोग भी सामूहिक प्रार्थना और इफ्तार मनायें।
- रमजान- इस महीने में कोई परीक्षायें न हों, " रमजान के महीने में परीक्षा की तैयारी और उपवास साथ साथ कठिन हो सकता है। इस महीने में यौन शिक्षा न हो।
- हलाल माँस उपलब्ध कराया जाये और छात्रों को दाहिने हाथ से खाने की अनुमति हो।
- कपडा पहनना- हिजाब और जिजाब की अनुमति हो( सर से नख तक कपडा) नहाते समय स्विमिंग पूल में मुस्लिम छात्र अधिक शालीन कपडे पहनें इस्लामी पहचान के चिन्ह की अनुमति हो।
- दाढी- एक पुरुष छात्र के लिये अधिकार
- खेल- जहाँ अन्य टीम के खिलाडियों के साथ सम्पर्क की बात हो तो लिंग भेद हो। जिन खेलों में लिंग भेद हो वह फुटबाल, बास्केटबाल और तैराकी ।
- नहाने के कक्ष- अलग प्रभाग ताकि मुस्लिम लोग को कोई नग्न न देख सके । .
- संगीत- यह मानवीय आवाज तक सीमित हो और नग़ाडे आदि की आवाज न हो।
- नृत्य- जब तक एकल लिंगी वातावरण न हो मुस्लिम लोगों को लग रखा जाये और इसमें यौन सन्देश न हो।
- अध्यापक और प्रशासन प्रशिक्षण- स्टाफ को इस्लामिक जानकारी के लिये प्रशिक्षण दिया जाये ताकि मुस्लिम शिष्यों के लिये बेहतर जानकारी और समझ विकसित हो सके।
- कला- मुस्लिम छात्रों को मानव के त्रिआयामी चित्र बनाने से दूर रखा जाये।
- मजहबी निर्देश- किसी पैगम्बर का चित्र प्रतिबन्धित है
- भाषानिर्देश-सभी मुस्लिम छात्रों के लिये अरबी उपलब्ध कराई जाये।
- इस्लामी सभ्यता- 1- यूरोप इतिहास में मुस्लिम योगदान का अध्ययन हो साथ ही कला, गणित, और विज्ञान की कक्षायें हों। यूरोपीय और इस्लामी विरासत के उभयनिष्ठ पहलू पर चर्चा हो।
एम सी बी के इस कार्यक्रम के बाद रश्दी नियम की आलोचना के लिये कोई स्थान नहीं रह जाता। मैं लिखूँगा नहीं, कमेंट्री में प्रकाशित नहीं होगा और आप उसे पढेंगे नहीं।
स्कूल के सम्बन्ध में व्यापक बदलाव तो केवल एक परिवर्तन है। सीढी दर सीढी टुकडा दर टुकडा इस्लामवादी चाहते हैं कि पश्चिमी संस्कृति में स्वयं को शिक्षा , संस्कृति और संस्थाओं के द्वारा प्रवेश करा दें जो कि समय आने पर सेक्युलर संस्थाओं का स्थान ले जो कि समय आने पर इस्लामी व्यवस्था का अंग बन सके। कुछ परिवर्तन तो पहले से वहाँ हैं और जीवन के अनेक क्षेत्रों को प्रभावित कर रहे हैं। कुछ प्रमुख उदाहरण-
बहुविवाह- ब्रिटेन में अनेक परिस्थितियों में बहुविवाह मान्य है साथ ही नीदरलैंड, बेल्जियम, इटली, आस्ट्रेलिया और कनाडा के ओंटारियो प्रदेश में। वाशिंगटन राज्य में केवल मुस्लिम महिलाओं के लिये तैराकी सत्र आयोजित होता है। केवल महिलाओं के लिये वर्जीनिया में कक्षायें चलती हैं जो कि लोगों के आयकर से चलने वाला विश्वविद्यालय है। अमेरिका के तीन राज्यों में महिलायें हिजाब के साथ अपने चालक लाइसेंस फोटोग्राफ प्राप्त कर सकती हैं। लन्दन पुलिस के अंतर्गत कार्य करने वाले महिलायें अपने रोजगार प्रदाता द्वारा दिये गये हिजाब को पहन कर कार्य कर सकती हैं।
मध्य पूर्व में कार्यरत किसी भी सैनिक को कोई ऐसा मामला जो कि इस्लामी आस्था के साथ टकराव में होगा उसे अमेरिका की पोस्टल सेवा के द्वारा नहीं भेजा जायेगा। मेडिकल लोग मुस्लिम मरीज या सहकर्मी के समक्ष न तो कुछ पियेंगे और न ही खायेंगे रमजान के महीने में यह नियम स्काटलैंड के अस्पताल में है। बोस्टन शहर ने एक सार्वजनिक भूमि को एक इस्लामी संस्था बनाने के लिये अत्यंत कम दर पर भूमि दे दी।
ये कदम कितने ही छोटे क्यों न हो ये पश्चिमी मूल्यों और परम्परा को नजरअन्दाज कर इस्लामीकरण की ओर बढते हैं। ये अस्वीकार्य हैं मुसलमानों को पूरी तरह समान अधिकार मिलना चाहिये और उत्तरदायित्व भी लेकिन विशेषाधिकार नहीं। उन्हें वर्तमान व्यवस्था के साथ आत्मसात होना चाहिये न कि पश्चिमी समाज को इस्लामी साँचे में ढालना चाहिये। स्वतंत्रता का स्वागत है लेकिन शरियत के मध्यकालीन नियम की ओर बढना स्वीकार नहीं है।
यदि देखा जाये तो 1989 में रश्दी के विरुद्ध आदेश का लेखकों और उपन्यास लेखकों में विरोध हुआ था और विशेष रूप से वामपंथियों में। वामपंथी बौद्धिक समाज उनके साथ खडा हुआ था। ( सुसान सोंटांग ने कहा, " एक लेखक के ऊपर आक्रमण से हमें उतना ही धक्का लगा है जितना एक तेल टैंकर पर आक्रमण से)। इसके बाद दक्षिणपंथी थे ( पैट्रिक बुचानन- " हमें इस ईशनिन्दित उपन्यास को ठन्डे बक्से में डाल देना चाहिये)। लेकिन समय परिवर्तित हो गया है पाल बर्मन ने हाल में अपनी पुस्तक द फ्लाइट आफ द इंटेलेक्चुवल्स में उन्होंने अपने उदारवादियों की इस कारण आलोचना की है कि वे इस्लामवादी विचार और हिंसा का विरोध करने में असफल रहे हैं।
उस समय फ्रांस के समाजवादी राष्ट्रपति फ्रांकोस मिटरलैण्ड ने रश्दी के विरुद्ध खतरे को पूरी तरह बुराई कहा था। जर्मनी की ग्रीन पार्टी ने ईरान के साथ सभी आर्थिक सम्बन्ध तोड लेने की बात की थी। जर्मनी के विदेश मंत्री हांस डेत्रिच जेंचर ने यूरोपीयन यूनियन प्रस्ताव के द्वारा रश्दी का समर्थन करने की बात की। अमेरिकी सीनेट ने किसी भी व्यक्ति के पुस्तक लिखने, प्रकाशित करने पढने और बिना भय के यह सब करने के अधिकार की रक्षा का प्रस्ताव पारित किया और खोमेनी की धमकी को राज्य प्रायोजित आतंक बताया। 2010 में सरकारों की ओर से ऐसी प्रतिक्रिया नहीं आती।
1989 से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हर मामले में जैसे डेनमार्क में मुहम्मद का कार्टून हो या फिर अन्य मामला हो सभी में अनेक लेखकों को , प्रकाशकों को और व्याख्याकारों को स्वयं को अभियव्यक्त करने से परहेज करना पडा है। उदाहरण के लिये टाम क्लेंसी के उपन्यास में हमास जैसे दिखने वाले आतंकवादी का चित्रण अन्य रूप में करना पडा। येल विश्वविद्यालय ने अपनी पुस्तक जो डेनमार्क में कार्टून विवाद पर लिखी गयी उसमें कार्टून फिर से प्रकाशित नहीं हुए।
इसके लिये जो कारण दिये गये वे संतोषजनक नहीं हैं। " यह निर्णय सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिये था", " अपने ग्राहकों और कर्मचारियों की सुरक्षा हमारा प्राथमिक दायित्व है" " मुझे इस बात का डर है कि कोई मेरा गला काट देगा" " मैं इस्लाम के सम्बन्ध में जो सोचता हूँ यदि उसे बता दूँ तो निश्चय ही इस विश्व में नहीं रह सकूँगा"। " यदि ऐसा मैं करूँ तो यह यह मृत्यु को न्योता देना होगा"।
1989 से जो परिवर्तन हुआ है वह तीन वादों का परिणाम है। बहुसंस्कृतिवाद, वामपंथ फासीवाद और इस्लामवाद। बहुसंस्कृतिवाद का परिणाम है कि यह कोई जीवन शैली नहीं है, कोई आस्था या राजनीतिक दर्शन नहीं है किसी से बेहतर नहीं या फिर सबसे बेकार। जैसे कि इटालियन और जापानी भोजन दोनों ही बेहतर हैं, वैसे ही वातावरणवाद और उसी प्रकार यहूदी ईसाई संस्कृति के लिये समान रूप से बेहतर विकल्प प्राप्त होते हैं। किसी भी जीवन शैली के लिये क्यों झग़डा करना जब कोई भी एक दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकती।
लेकिन शायद दूसरा मार्ग और भी बुरा है। यदि पश्चिमी संस्कृति और पश्चिमी साम्राज्यवाद ने और श्वेत नस्ल ने सब कुछ प्रदूषित कर दिया है तो कौन पश्चिमी संस्कृति को चाहेगा। वामपंथी फासीवादियों का आन्दोलन जो कि ह्वुजो शावेज द्वारा नेतृत्वमान है उनके अनुसार पश्चिमी शक्ति जिसे वे साम्राज्य कहते हैं वह विश्व का सबसे बडा खतरा है और अमेरिका और इजरायल सबसे बडे आक्रांता हैं।
1989 के बाद से इस्लामवाद काफी तेजी से बढा है जो कि एक क्रांतिकारी सशक्त फंतासी बन चुका है जिसने कि वामपंथ के साथ एक गठबन्धन बना लिया है जो कि सभ्य समाज को प्रभाव में ले रहा है जो कि अनेक सरकारों को चुनौती दे रहा है, पश्चिम में स्वयं को स्थापित कर रहा है और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में अपने एजेंडे को चतुराई से लागू कर रहा है।
पश्चिम की कमजोरी ने इस्लामी उभार को शक्ति दी है। पश्चिमी संस्कृति की रक्षा करने वाले न केवल इस्लामवादियों से लडें वरन बहुसंस्कृतिवाद से भी लडें जो कि उन्हें सशक्त कर रहे हैं और वामपंथियों के साथ गठबन्धन कर रहे हैं।