1 जनवई 1996 को अब्दुल्लाह बिन अब्दुलअजीज सऊदी अरब के प्रभावी दृष्टि से शासक बने। इस सप्ताह उस दिन की 15वीं वर्षगाँठ पर यह अवसर है कि हम उनके शासनकाल में हुए परिवर्तनों की समीक्षा कर सकें और यह जानने का प्रयास करें कि यह शासन किस दिशा में जा रहा है।
सऊदी अरब सम्भवतः इस धरती पर सर्वाधिक अपारदर्शी और अस्वाभाविक देश है जहाँ पर कोई भी सार्वजनिक फिल्मी थियेटर नहीं है , जहाँ महिलायें वाहन चालक नहीं हो सकतीं, जहाँ पुरुष महिलाओं के अंतःवस्त्र बेचते हैं , जहाँ पर एक बटन की आत्मघाती व्यवस्था समभवतः समस्त तेल की आधारभूत संरचना को नष्ट कर सकती है और जहाँ शासक लोकतंत्र की एक सामान्य सी व्यवस्था का भी विरोध करते हैं। ऐसे स्थान पर उन्होंने कुछ अत्यन्त ही उच्चस्तरीय मौलिक और सफल व्यवस्था बना रखी है जिसके द्वारा शासन सत्ता पर नियंत्रण स्थापित करते हैं।
तीन विशेषतायें पूरे शासन को परिभाषित करती हैं, पवित्र शहर मक्का और मदीना पर नियंत्रण , इस्लाम की वहाबी व्याख्या का विस्तार और विश्व के सबसे बडे पेट्रोलियम भाग पर अपना कब्जा बनाये रखन। इस्लाम इसकी पहचान को परिभाषित करता है , वहाबीवाद इसकी वैश्विक मह्त्वाकाँक्षा को प्रेरित करता है और तेल की आय इसके उद्यम को आर्थिक सहायता प्रदान करती है।
इससे भी बडी बात यह है आवश्यकता से अधिक धन सऊदियों को इस बात की अनुमति देता है कि वे आधुनिकता की व्याख्या अपने अनुसार कर सकें। वे जैकेट और टाई का विरोध करते हैं, कार्यक्षेत्र से महिलाओं को अलग रखा जाता है और ग्रीनविच मीन टाइम के स्थान पर मक्का मीन टाइम चलाया जाता है।
अधिक वर्ष नहीं व्यतीत हुए जब राज्य में मुख्य बहस राज्य के वहाबी संस्करण और तालिबान के वहाबी संस्करण के मध्य थी जो कि इस्लाम की अतिवादी और चरमपंथ के मध्य की बहस थी। लेकिन आज इसे हम अब्दुल्लाह द्वारा वहाबी तपन को कम करने के प्रयासों का परिणाम कह सकते हैं कि सबसे पिछडे इस देश ने भी आधुनिक विश्व की मुख्यधारा में आने के लिये कुछ सतर्क कदम उठाये हैं। इन प्रयासों के अनेक आयाम हैं जिसमें बच्चों की शिक्षा से लेकर राजनीतिक नेताओं के चयन को लेकर प्रणाली तक हैं। लेकिन इनमें से सबसे मह्त्वपूर्ण उलेमाओं के मध्य संघर्ष है जो कि कट्टरपंथी और उदारवादी के मध्य बँट गये हैं।
इस विवाद की शब्दावलियों को बाहरी लोगों के लिये समझना कठिन होगा। सौभाग्य से हालैंड के मध्य पूर्व के विशेषज्ञ रोयेल मीजर ने अपने लेख में राज्य को समझने के लिये अपने विशेषज्ञ तर्क दिये हैं। अपने लेख "Reform in Saudi Arabia : The gender segregation Debate" में उन्होंने यह विषय उठाया है। उन्होंने बताया है कि किस प्रकार लैंगिक मिश्रण ( अरबी में इख्तिलात) की बहस राज्य के भविष्य के केन्द्र में आ गयी है।
उनके अनुसार लैंगिक भेदभाव को लेकर यह जटिलता 1979 में ईरान की इस्लामी क्रांति और ओसामा बिन लादेन जैसे लोगों द्वारा मक्का मदीना को घेर लेने की पीडादायक घटनाओं के बाद सफलतापूर्वक चालये गये साहवा आंदोलन से कहीं कम है।
जब अब्दुल्लाह पूरी तरह राज्य के शासक 2005 के मध्य में बने तो उन्होंने लैंगिक भेदभाव को कम करने की दिशा में कदम बढाये। वर्ष 2009 में इख्तिलात की दिशा में दो बडे कदम बढाये गये , फरवरी में उच्च स्तरीय सरकारी व्यक्ति को परिवर्तित किया गया और सितम्बर में किंग अब्दुल्लाह विज्ञान और तकनीकी विश्वविद्यालय खोला गया जिसमें मिश्रित शिक्षा के साथ मिश्रित नृत्य की व्यवस्था की गयी।
इख्तिलात की यह बहस राजघराने, राजनीतिक लोगों , उलेमा और बौद्धिक वर्ग तक पहुँच चुकी है। " यद्यपि 9\11 के बाद से महिलाओं की स्थिति में सुधार हुआ है परंतु इख्तिलात ने सुधारवादियों और परम्परावादियों के मध्य संघर्ष की रेखा खींच दी है। इसे कम करने के लिये या लैंगिक मिश्रण बढाने का कोई भी प्रयास परम्परावादियों की स्थिति और इस्लाम पर सीधा आक्रमण माना जाता है।
मीजर अपने इस सर्वेक्षण की इस बहस को इस टिप्पणी के साथ निष्कर्ष पर पहुँचाते हैं , " यह पता कर पाना अत्यंत कठिन है कि क्या सुधारवादी सफल हो रहे हैं या फिर उदारवादी या फिर परम्परावादी बढत बना रहे हैं। वैसे सामान्य तौर पर सुधारवादियों के पक्ष में रुझान है, सुधार झिझक के साथ , सशर्त और मजबूत विरोध का सामना कर रहा है"
वैसे तो अब्दुल्लाह के नेतृत्व में राज्य ने अधिक खुले और सहिष्णु इस्लाम को प्रेरित किया है लेकिन मीजर का तर्क है, " इख्तिलात की बहस से यह स्पष्ट है कि लडाई अभी जीती नहीं गयी है। बहुत से सऊदी इस बात से परेशान हो चुके हैं कि धार्मिक अधिकारी उनके जीवन में हस्तक्षेप करते हैं और लोग कम से कम धार्मिक नेताओं के विरुद्ध आंदोलन के पक्ष में बोल सकते हैं। लेकिन उदारवादी ऐसी भाषा बोल रहे हैं जो कि आधिकारिक वहाबीवाद और बहुसंख्यक सऊदियों के लिये एकदम नयी है इसलिये इस बात की सम्भावना अत्यंत कम है कि वे इन्हें प्रभावित कर सकें"
संक्षेप में अरब के लोग बह्स के मध्य में हैं जहाँ कि सुधार के भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता । केवल कुलीन और लोगों की राय ही मह्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाते अनेक जटिल मुद्दे और भी आवश्यक होते हैं विशेष रूप से 86 वर्षीय अब्दुल्लाह कितने दिन सक्रिय रह पाते हैं और उनके 82 वर्षीय सौतेले भाई सुल्तान बिन अब्दुलअजीज राजकुमार होते हुए भी क्या उनके उत्तराधिकारी बन पाते हैं?
सऊदी अरब विश्व का सबसे मह्त्वपूर्ण और प्रभावी मुस्लिम देश है इसलिये यहाँ बहुत कुछ दाँव पर लगा है न केवल राज्य में वरन सामान्य रूप से इस्लाम और मुसलमानों के लिये भी। इस बहस पर हमारी पूरी नजर होनी चाहिये।