क्या यह हो सकता है कि एक महत्वपूर्ण पाठ्यपुस्तक 12 वर्षीय अमेरिकन को इस्लाम में मतान्तरित करने का प्रयास करे।
जिस पुस्तक पर प्रश्नचिन्ह लगा है वह है Across the Centuries (Houghton Mifflin, 2nd edition, 1999) जो कि 558 पृष्ठ का इतिहास है जिसमें कि डेढ सहस्राब्दी के समय की चर्चा है जो कि रोम के पतन और फ्रांसीसी क्रांति तक का समय है। बहुसंस्कृतीय भावना के अनुरूप इसके आठ भाग में से आधे पश्चिम को समर्पित हैं तथा शेष चार में इस्लाम, अफ्रीका , एशिया साम्राज्य तथा पूर्व कोलम्बिया अमेरिका की चर्चा की गयी है।
Across the Centuries एक सुंदर कलाकृति है, अच्छे ढंग से लिखा गया है और इसमें मौलिक लेखाचित्र हैं जिससे कि प्रकाशक ने अपने सामान्य लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है कि "छात्र अच्छे ढंग से तभी सीख सकते हैं जब वे उस विषय से आकर्षित हों जिसे वे सीख रहे हैं"
इसी के साथ इसमें बहुत कुछ है जिस पर तर्क किया जा सकता है जैसे कि कुछ विषयों पर व्यक्तिगत रुचि ली गयी है ( सब सहारा अफ्रीका का उल्लेख भारत के मुकाबले चार बार अधिक किया गया है) ।परंतु सबसे गम्भीर समस्या तो इस्लाम का परोक्ष प्रचार है जो कि चार प्रकार से है:
इस्लाम के कार्यों को सही सिद्ध करते हुए क्षमाप्रार्थी भाव: जो कुछ भी इस्लामी है उसकी प्रशंसा की गयी है; सभी समस्याओं को छिपा दिया गया है" । छात्रों को इस्लाम के महान " सांस्कृतिक विकास" के बारे में सीखना चाहिये, परंतु बाद की शताब्दियों की जड्ता और पतन का कोई उल्लेख नहीं है। वे बार बार मुसलमानों की उदारता का उल्लेख करते हैं ( " जिन पर उन्होंने विजय प्राप्त की उनके प्रति वे अत्यंत सहिष्णु थे" ) परंतु अपनी हिंसा के बारे में कोई उल्लेख नहीं किया गया है (जैसे कि बानू कुरायजा के यहूदियों का जो नरसंहार मोहम्मद की सेना ने किया उसकी चर्चा नहीं है) ।
- तथ्यों को तोडा मरोडा गया: जिहाद जिसका अर्थ " पवित्र युद्ध" है उसे " बुराई से लडने और किसी प्रकार के भडकाऊपन से बचने" के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। इस्लाम महिलाओं को वे अधिकार प्रदान करता है जो कि अन्य समाज में प्राप्त नहीं है जैसे कि शिक्षा का अधिकार? यह उस स्पष्ट तथ्य की अवहेलना करता है जिसके अनुसार समस्त विश्व में मुस्लिम महिलाओं को सबसे कम अधिकार प्राप्त हैं। ( अक्रास द सेंचुरिज परोक्ष रूप से इस वास्तविकता को स्वीकार करता है और उनकी इस स्थिति के लिये " उत्पीडक स्थानीय परम्पराओं" को दोषी ठहराता है)
- मुस्लिम के रूप में पहचान: गृहकार्य में बार बार मुस्लिम व्यवहार को शामिल किया जाता है। " छात्रों के छोटे समूह बनाकर मस्जिद की चित्रकारी करना" । या फिर " तुम अलेक्जेंड्रिया में मक्का प्रस्थान के लिये अपना घर छोडो ...... इसके मार्ग का वर्णन करते हुए एक पत्र लिखो , यात्रा में वातावरण , लोग और मार्ग में घटित घटना का उल्लेख करो। मक्का में जो कुछ दिखा उसका वर्णन करो" उसके बाद एक चौंकाने वाली बात : " कल्पना करो कि ईसा पूर्व 635 में सीरिया की विजय के लिये जा रहे मार्ग के तुम एक सिपाही हो" । अपने विचार तीन विषय पर लिखो इस्लाम, युद्ध में लडना या फिर मरुस्थल में जीवन"
श्रद्धा: पाठ्यपुस्तक इस्लामी आस्था के मूल बिंदुओं का समर्थन करता है। यह छात्रों को बताता है कि रमादान ऐतिहासिक तथ्य है क्योंकि " इस माह में मोहम्मद को अल्लाह से पहला संदेश मिला था" । यह इस बात पर जोर देता है कि "मोहम्मद को देवदूत गैब्रियल का पहला संदेश " व्याख्या" था। यह बताता है कि अरब लिपि " ईश्वर के शब्दों को लिखने के लिये थी क्योंकि यह मोहम्मद को दिया गया था" । इसमें यह भी घोषणा की गयी कि " स्पेन में मस्जिद के एक निर्माण में अल्लाह का परोक्ष आभास होता था", इसी प्रकार इस्लाम के संस्थापक को " पैगम्बर मुहम्मद" कहा जाता है और इसमें उनके मिशन को भी परोक्ष रूप से स्वीकार करने जैसा है। ( विद्यालय की पाठ्यपुस्तक नजारेथ के जीसस के पक्ष में जीसस क्राइस्ट को सीधे सीधे अवहेलना कर देता है)
इस्लाम के बारे में सीखना आश्चर्यजनक है; मैंने भी व्यक्तिगत रूप से इस समृद्ध विषय पर अध्ययन करते हुए तीस वर्ष व्यतीत किये । परंतु विशेष रूप से पब्लिक स्कूल में छात्रों को इस्लाम के बारे में समालोचक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये और उसकी अच्छी और बुरी सभी बातें जाननी चाहिये जो प्राचीन हो और आधुनिक भी। उन्हें बाहर से इसे एक आस्थावान के रूप में नहीं वरन अन्य धर्मों की भाँति देखना चाहिये।
कुछ अभिभावक पाठ्यपुस्तक की समस्या के प्रति जागरूक हुए हैं। सैन लुइस ओबिप्सो कालिफ के जेनिफर श्रेयोडोर ने सार्वजनिक रूप से इस्लाम को लेकर इस विशेष व्यवहार का विरोध किया है । परंतु जब उन्होंने अपने पुत्र एरिक को पुस्तक को आधार बनाकर कक्षा से हटाने का प्रयास किया तो विद्यालय ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति देने से मना कर दिया और इसका विरोध करते हुए उन्होंने वाद दायर किया ।
अक्रास द सेंचुरिज के साथ बडा विषय जुडा है और वह है अमेरिका में इस्लाम को दिया जाने वाला विशेषाधिकार है। क्या इस्लाम के साथ अन्य धर्मों जैसा व्यवहार होना चाहिये या फिर इसे विशेष दर्जा मिलना चाहिये? यहाँ सातवीं कक्षा के पाठ्यपुस्तक से अधिक दाँव पर लगा है।