27 अक्टूबर को फ्रांस में मुस्लिम युवकों द्वारा “अल्लाहो-अकबर” के आह्वान के साथ आरंभ हुए दंगे यूरोप के इतिहास में एक बदलाव की शुरुआत हैं. पेरिस के बाहर क्लीची साउस बोइस में आरंभ हुए ये दंगे 11 वें दिन फ्रांस के 300 शहरों और कस्बों तक फैलते हुए बेल्जियम और जर्मनी तक फैल गए हैं. इस हिंसा ने जिसे पहले इंतिफादा , जेहाद , गुरिल्ला युद्ध , बगावत , विप्लव और गृह-युद्ध के नामों से पुकारा जाता रहा है , अनेक विचारों को उद्वेलित किया है .
एक युग की समाप्ति – सांस्कृतिक अज्ञानता और राजनीतिक अपरिपक्वता के उस युग की समाप्ति होने वाली है जब फ्रांस कुछ देखने या उसके परिणाम न देखने की भूल कर सकता था .डेनमार्क और स्पेन की भांति फ्रांस में भी मुसलमानों की उपस्थिति से जुड़े तमाम विषय नीतिगत एजेन्डे का विषय बन चुके हैं जो दशकों तक बने रहेंगे.
इन विषयों में ईसाई धर्म की गिरावट, भूजनांकिकी , जन्म से मृत्यु तक के कल्याण के लिए राज्य की सहायता की पद्धति (जो आप्रवासियों को सर्वाधिक आकर्षित करती है ) , नीरस बहुलतावादी संस्कृति के पक्ष में तथा जीवन पद्धति के प्रयोग के चलते अपनी ऐतिहासिक जड़ों से दूर होने की प्रवृत्ति , प्रवासियों को आत्मसात करने में तथा सीमाओं को नियंत्रित करने में असफलता , अमेरिका से भी अधिक यूरोप के शहरों में अपराध का बढ़ता स्तर तथा इस्लाम व कट्टरपंथी इस्लाम का उभार प्रमुख हैं.
बगावत का यह पहला अवसर नहीं है . मुसलमानों द्वारा प्रायोजित छोटे स्तर पर उग्रवाद की यह घटना यूरोप में कोई नई नहीं है . इससे पहले डेनमार्क में अरहुस तथा इंग्लैंड में बरमिघम में ऐसी घटनायें हो चुकी हैं. इस चक्र में अंतर केवल इतना है कि यह घटना लंबे समय की , गंभीर , सुनियोजित और खूंखार होने के कारण पिछली घटनाओं से भिन्न है .
प्रेस द्वारा नकारा जाना - फ्रांस के प्रेस ने बड़ी चतुराई से इसे शहरी हिंसा बता दिया तथा दंगाईयों को व्यवस्था से पीड़ित व्यक्तियों के रुप में प्रस्तुत कर दिया . मुख्यधारा की मीडिया ने इस बात से पूरी तरह इंकार किया है कि इस घटना से इस्लाम का कोई लेना –देना है तथा इस्लामवादी विचारधारा की बढ़ती व्यापकता की भी अवहेलना की है . जबकि इस्लामवादी विचारधारा पूरी तरह फ्रांस विरोधी विचारों से ग्रस्त है तथा इसका लक्ष्य फ्रांस पर नियंत्रण स्थापित कर इसकी सभ्यता के स्थान पर इस्लाम को स्थापित करना है .
जिहाद का एक और प्रकार – यूरोप के उत्तरपश्चिमी स्वदेशी मुसलमानों ने पिछले वर्ष जेहाद के तीन तरीकों का प्रयोग किया है . ब्रिटेन में भौंडा तरीका अपनाकर लंदन के आसपास के सामान्य यात्रियों को निशाना बनाया गया .नीदरलैंड में कुछ राजनेताओं और सांस्कृतिक नेताओं को निशाना बनाकर उन्हें धमकाया गया या उनपर हमला किया गया और अब फ्रांस में हिंसा के विस्तार का नया तरीका अपनाया गया जो लोगों की हत्यायें तो नहीं करता लेकिन राजनीतिक दृष्टि से जिसे नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता . यह तो अभी स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कौन सा तरीका अधिक सक्षम रहा है लेकिन ब्रिटेन में अपनाए गए तरीके ने मुसलमानों को ही क्षति पहुंचाई है इसलिए संभवत: फ्रांस और नीदरलैंड की नीति ही जारी रहेगी .
सारकोजी बनाम विलेपिन –2007 के लिए राष्ट्रपति पद के दो प्रमुख उम्मीदवार निकोलस सारकोजी और डोमिनिक डी विलेपिन ने इन दंगों पर परस्पर विरोधी तरीके से प्रतिक्रिया दी है .सारकोजी ने कड़ा रुख अपनाते हुए कहा है कि शहरी अपराध को सहन नहीं किया जायेगा जबकि डी विलेपिन ने लचीला रुख अपनाते हुए वायदा किया है कि शहरी लोगों की स्थिति सुधारने के लिए कार्ययोजना बनाई जाएगी .
राज्य विरोधी- दंगों की शुरुआत सारकोजी के उस बयान के 8 दिन बाद हुई जिसमें उन्होंने शहरी हिंसा के विरुद्ध निर्दयता से पेश आने की नीति की घोषणा की तथा हिंसक युवकों को कूड़ा -कचरा कहा.बहुत से दंगाई स्वयं को राज्य के विरुद्ध संघर्ष की स्थिति में पाते हैं इसलिए राज्य के प्रतीकों पर हमले कर रहे हैं .एक रिपोर्ट के अनुसार 20 वर्षीय मोरक्को आप्रवासी मोहम्मद के अनुसार “ सारकोजी ने युद्ध की घोषणा कि है तो अब वे युद्ध का सामना करें.” दंगाईयों के प्रतिनिधियों ने मांग की है कि फ्रांसीसी पुलिस कब्जे वाले क्षेत्र को छोड़े जबकि सारकोजी दंगों के लिए कट्टरपंथियों को दोषी ठहरा रहे हैं.
फ्रांस इस मामले में तीन तरीके से प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है.पहला फ्रांस गलती मानकर दंगाईयों को विशेषाधिकार प्रदान कर सकता है और कुछ लोगों की मांगें मानकर बड़े पैमाने पर इन क्षेत्रों में निवेश कर सकता है . दूसरा वे इन दंगों की समाप्ति पर राहत की सांस लें और कार्यव्यापार सामान्य ढ़ंग से चलने दें. तीसरा इसे भविष्य की क्रांति के आरंभ के रुप में देखकर पिछले दशकों में ऐसे मामलों की उपेक्षा का निवारण करते हुए कुछ कठोर कदम उठायें.
लेकिन मुझे लगता है कि पहली दोनों प्रतिक्रियाओं का मिश्रित स्वरुप सामने आएगा तथा चुनावों में सारकोजी की बढ़त के बाद भी विलेपिन की तुष्टीकरण की नीति ही प्रभावी होगी .लगता है फ्रांस को नींद से जागने के लिए कुछ और बड़ी तथा विस्मित कर देने वाली घटनाओं की प्रतिक्षा है . दीर्घकालीन पूर्वानुमान से बचा नहीं जा सकता जैसा कि थियोडोर डॉलरिंपल ने कहा है कि सार्वभौमिक सांस्कृतिक संगतता का मधुर स्वप्न निरंतर चलने वाले संघर्षों के समक्ष चूर हो गया है .