बीते दिनों में अमेरिकी सरकार किस प्रकार इस्लाम को एक राजनीतिक शक्ति के रूप में देखती थी? इसके उत्तर के लिये मैंने कल अमेरिका के युद्ध विभाग की सैन्य खुफिया सेवा द्वारा 60 वर्ष पूर्व प्रस्तुत की गई 76 पेज के अध्ययन का सुझाव दिया था.इस गोपनीय अध्ययन को अवर्गीकृत श्रेणी में रख दिया गया था.
1946 की यह रिपोर्ट साप्ताहिक रिपोर्टों का आरम्भिक अंक है जिसे इन्टेलीजेन्स रिव्यू के शीर्षक से प्रकाशित किया गया था.इस खुफिया श्रृंखला से प्रकट होता है कि किस प्रकार सेना की रुचि राजनीतिक, आर्थिक,सामाजिक,तकनीकी और सैन्य मामलों में बढ. रही थी. प्रथम अंक के शीर्षक में शामिल हैं-“प्रमुख सैन्य शक्तियों का शान्तिकालीन सैन्य पद्धति की ओर संक्रमण ” “ मन्चूरिया –सोवियत या चीनी क्षेत्र ”और ‘ गेहूं विश्व की खाद्य आपूर्ति की चाबी’
विशेष रूचिकर पेज 11 है जिसका शीर्षक “इस्लाम विश्व के लिये खतरा” है. यह कुछ निराशाजनक दृष्टि के साथ आरम्भ होता है -
कुछ अपवादों को छोड़कर मुस्लिम विश्व के राज्य गरीबी,अज्ञानता और निष्क्रियता का चिन्ह प्रकट करते हैं. ये पूरी तरह असन्तोष और कुन्ठा से भरे हैं तथा इनमें हीन भावना जीवित है साथ ही संकल्पित हैं कि अपनी स्थिति सुधार लेंगे.
इन मुस्लिम क्षेत्रों में दो आग्रह आपस में मिल गये हैं और हितों के परस्पर टकराव में संघर्ष अन्तर्निहित है. इन आग्रहों का प्रकटीकरण हमें प्रतिदिन आतंकवाद, विपक्षी सदस्यों की मृत्यु, अपरिपक्व राष्ट्रवाद और कूटनीतिक दांवपेंच के लिये नग्न विस्तारवाद के रूप में समाचारों में देखने को मिलता है.
इसके बाद रिपोर्ट इन दो आग्रहों का वर्णन करते हुये उचित ही पूर्व आधुनिक युग की लम्बी छाया पर प्रकाश डालती है.
इन आग्रहों में से एक का मूल तो स्वयं मुसलमानों के अपने क्षेत्र में विद्यमान है. मुसलमान उस शक्ति का स्मरण करते हैं जब उन्होंने न केवल अपने राज्यों पर वरन् आधे यूरोप पर राज्य किया था, साथ ही उन्हें अपनी वर्तमान पीड़ादायक आर्थिक, सांस्कृतिक और सैन्य विपन्नता का भी आभास है.परिणामस्वरूप उनके सामूहिक चिन्तन में बड़े पैमाने पर आन्तरिक दबाव रहता है.मुसलमान किसी भी प्रकार अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता वापस पाना चाहते हैं तथा अपने संसाधनों का भी स्वयं लाभ उठाना चाहते हैं. संक्षेप में इस पूरे क्षेत्र में हीनभावना विद्यमान है और इसकी गतिविधियों के बारे में उसी प्रकार कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती जैसे एक अतिप्रेरित व्यक्ति की गतिविधियों के बारे में नहीं की जा सकती.
मुसलमानों को मनोवैज्ञानिक ढंग से परखना उस युग की विशेषता थी,जब समाजशास्त्री प्राय: राजनीति की ब्याख्या व्यक्तिगत व्यवहार के आधार पर करते थे(उदाहरण के लिये रूथ बेनेडिक्ट ने 1946 के अपने अध्ययन The Chrysanthemum and the Sword: Patterns of Japanese Culture में तर्क दिया कि जापान का राष्ट्रीय चरित्र कुछ अंशों में कड़े टायलट प्रशिक्षण का परिणाम था.)
दूसरा आग्रह बाहरी तत्व पर आधारित है.दुनिया की बड़ी और लगभग बड़ी शक्तियां मुस्लिम क्षेत्र की आर्थिक सम्पन्नता पर नियन्त्रण रखती हैं तथा कुछ क्षेत्रों के रणनीतिक स्थलों पर भी उनकी नजर है.इन क्रियाकलापों के बारे में भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती क्योंकि ये शक्तियां स्वयं को ग्राहक के रूप में देखती हैं जो शीघ्रता से खरीददारी कर लेना चाहती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि उनकी दुकान लूट ली जायेगी. इस प्रकार महत्वाकांक्षा और अविश्वास के वातावरण में कोई भी छोटी सी चिंगारी विस्फोटक बन सकती है और अपनी चपेट में उन देशों को भी ले सकती है जो विश्व में शान्ति स्थापित रखना चाहते हैं.
इस अध्ययन की भूमिका इस विश्लेषण को न्यायसंगत ठहराते हुये समाप्त होती है “ मुस्लिम विश्व में व्याप्त तनाव और इसमें सक्रिय शक्तियों को समझना खुफिया ढांचे का आवश्यक भाग है. ”
यह अध्याय मुस्लिम इतिहास के एक पेज के चित्रण के साथ आगे बढ़ता है जिसमें यह निष्कर्ष भी शामिल है “ वर्तमान समय में कोई भी मुस्लिम राज्य नहीं है.मुस्लिम विश्व का नेतृत्व मध्य पूर्व में स्थित है वह भी विशेष रूप से अरब क्षेत्र में”
1946 में अरब के पिछड़ेपन की बात करना या तो नासमझी है या जानबूझकर दिया गया वक्तव्य है.
इस अध्याय में अधिकतर उन शक्तियों की ओर ध्यान दिया गया है जो या तो मुस्लिम एकता को कमजोर करती हैं या सशक्त करती हैं. पहली श्रेणी में समान भाषा का अभाव,धार्मिक विघटन, भौगोलिक विभाजन, आर्थिक असमानता, राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता और रिपोर्ट में जो हल्के ढंग से कहा गया है नेतृत्व की वेश्यावृत्ति. यह मुस्लिम राजाओं, राष्ट्रपतियों और अमीरों को उतना नुकसान नहीं पहुंचा सका परन्तु सोवियत संघ के समापन के बाद तथाकथित मुस्लिम संरक्षक देशों का पर्यवेक्षण अवश्य करता है. इस विश्लेषण में ध्यान देने योग्य यह है कि मुसलमान पूरी तरह अपने नेताओं को लेकर सशंकित हैं.
मुसलमानों की एकता को सशक्त करने वाली एक छोटी सूची भी दी गई है. मक्का की तीर्थयात्रा, शास्त्रीय अरबी, आधुनिक संप्रेषण और अरब लीग. हज का उल्लेख नाटकीय तरीके से एक गलत भविष्यवाणी कर बैठा है “ युद्ध के दौरान जहाज की कमी से सामान्य काफिला 20,000 से 30,000 प्रतिवर्ष तक सीमित हो गया .सम्भवत: संख्या बढ़ेगी परन्तु पहले के अनुपात में नहीं बढ़ पायेगी.(वास्तव में तो अब हजयात्रियों की संख्या रिकार्ड बना रही है और अब यह संख्या 30 लाख पहुंच चुकी है जो 1946 से बहुत अधिक है.)”
इस्लाम के सम्बन्ध में यह अध्याय सोवियत संघ के साथ अमेरिका की शत्रुता पर दृष्टि रखने के साथ ही समाप्त होता है. इस्लाम को कम्युनिज्म के विरुद्ध एक सुरक्षा दीवार माना गया परन्तु सैन्य खुफिया सेवा ने इसे मास्को का सरल शिकार बताया है. इसके अनुसार मुस्लिम राज्य कमजोर हैं और अपने अन्तर्विरोधों से टूट चुके हैं तथा इन देशों के लोग इतने शिक्षित नहीं है कि नये स्वर्ग या नयी घरती का आश्वासन देने वालों के हेतु को समझ सकें.
विश्लेषण इस प्रकार समाप्त होता है कि मुस्लिम विश्व की रणनीतिक स्थिति और इसके लोगों की असहजता के कारण मुस्लिम राज्य विश्व शान्ति के लिये सम्भावित खतरा हैं.स्थायी रूप से विश्व में स्थिरता नहीं आ सकती जब तक विश्व की 1\7 प्रतिशत जनसंख्या ऐसी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में जी रही हो जो उन पर थोपी गई हो.
भूतकाल की इस आवाज से तीन निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं. पहला इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति आज के सरकारी विश्लेषण से काफी अलग है जिसे होशियारीपूर्वक बनाया गया है ताकि कोई आहत न हो. दूसरा यह धारणा कि मुस्लिम विश्व (अब विश्व की 1\6 जनसंख्या) विश्व की स्थिरता को बाधित कर सकता है काफी गहरी और महत्वपूर्ण है. तीसरा बहुत सी धारणायें जो आज प्रचलित हैं दो पीढ़ी पहले भी प्रचलित थीं जैसे मुसलमानों की कुण्ठा, पूर्व युग के साथ सम्बद्ध होने की लालसा, राजनीतिक अस्थिरता, कट्टरपंथी विचारधारा के प्रति झुकाव तथा विश्व शान्ति के प्रति खतरा. इससे पुष्ट होता है कि 11 सितम्बर और उसके बाद की आक्रामकता से उतना हतप्रभ नहीं होना चाहिये था जितने लोग हुए.