यदि आप अपने शत्रु को नाम नहीं दे सकते तो उसे परास्त कैसे करेंगे? यह वैसे ही है जैसे किसी डाक्टर को अपने किसी मरीज की चिकित्सा करने से पूर्व उसके रोग को पहचानना होता है, ठीक वैसे ही एक रणनीतिकार को एक युद्ध में विजय प्राप्त करने से पूर्व अपने शत्रु की पहचान करनी होती है। फिर भी पश्चिम के लोग इस संघर्ष में अपने विरोधी को पहचानने की अवहेलना ही करते रहे हैं अमेरिका की सरकार तो प्रायः अस्पष्ट व्याक्याँश “ आतंक के विरुद्ध वैश्विक युद्ध”, “ लम्बा युद्ध”, “ हिंसक अतिवाद के विरुद्ध वैश्विक संघर्ष” या फिर यहाँ, तक कि “ सुरक्षा और प्रगति के लिये वैश्विक संघर्ष” के सहारे काम चलाती रही है।
यह कायरता युद्ध के लक्ष्यों को निर्धारित करने की असफलता के रूप में सामने आती है। 2001 के अंत में अमेरिकी सरकार के दो उच्च स्तरीय वक्तव्य पश्चिमी सरकारों द्वारा जारी विस्तृत और अप्रभावी घोषणाओं को स्पष्ट करते हैं। रक्षा विभाग के सचिव डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने इस विजय को परिभाषित करते हुए कहा, “ एक ऐसा वातावरण जहाँ हम वास्तव में स्वतंत्रतापूर्वक जी सकते हैं”। इसके विपरीत जार्ज डब्ल्यू बुश ने कुछ संकीर्ण लक्ष्य की घोषणा की, “ वैश्विक आतंकी नेटवर्क की पराजय” जो भी वह अपरिभाषित नेटवर्क हो।
युद्ध को मूलभूत लक्ष्य वास्तव में “ आतंकवाद को परास्त करना है”। इसके प्रभाव के रूप में आतंकवादी शत्रु हैं और आतंकवाद प्रतिरोध इसकी मुख्य प्रतिक्रिया।
परंतु विश्लेषकों ने बार बार निष्कर्ष निकाला है कि आतंकवाद एक रणनीति है न कि शत्रु। बुश ने 2004 के मध्य में इसे प्रभावी रूप से स्वीकार किया था और संज्ञान लिया था, “ हमने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध को वास्तव में गलत नाम दिया है”। इसके स्थान पर उन्होंने युद्ध के सम्बन्ध में कहा, “ वैचारिक अतिवादियों के विरुद्ध संघर्ष जो उन्मुक्त समाज में विश्वास नहीं करते और जो उन्मुक्त विश्व की आत्मा को ध्वस्त करने के लिये आतंक को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं”।
एक वर्ष के उपरांत 7 जुलाई 2007 को लन्दन की परिवहन व्यवस्था पर आक्रमण के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने इस मामले में बहस को और आगे बढाते हुए शत्रु के विषय में चर्चा करते हुए कहा, “ एक धार्मिक विचारधारा, विश्वस्तर पर इस्लाम धर्म में तनाव”। इसके तत्काल बाद बुश ने स्वयं “ इस्लामी कट्टरपंथ”, उग्रवादी जिहादवाद” और “ इस्लामी फासीवाद” जैसे वाक्याँशों का प्रयोग किया। परंतु इन शब्दों से उनकी काफी आलोचना हुई और वे पीछे हट गये।
परंतु 2007 के मध्य में फिर से अपनी बात पर लौटे और “ पूरे वृहत्तर मध्य पूर्व में अतिवाद के विरुद्ध महान संघर्ष की बात की” । यहीं चीजें आकर ठहरी हैं और अमेरिका के सरकार की संस्थाओं को सलाह दी गयी है कि शत्रु को अस्पष्ट और व्यापक नाम जैसे “ मृत्युदाता सम्प्रदाय”, “ सम्प्रदाय जैसा”, “ अलगाववादी सम्प्रदाय” और “ हिंसक सम्प्रदायवादी” नामों से पुकारा जाये।
वास्तव में तो शत्रु का एक स्पष्ट नाम है और वह है इस्लामवाद, एक कट्टरपंथ काल्पनिक इस्लामी संस्करण । इस्लामवादी इस सुनियोजित वित्तीय सहायता प्राप्त, व्यापक रूप से विस्तृत अधिनायकवादी विचारधारा से जुडे हैं और इस्लामी कानून शरियत को लागू करने वाली वैश्विक इस्लामी व्यवस्था तो निर्मित करने का प्रयास कर रहे हैं।
परिभाषित होने के उपरांत इस विषय में प्रतिक्रिया भी स्पष्ट हो जाती है। यह दो स्तर पर है- इस्लामवाद को नष्ट कर मुसलमानों को इस्लाम का वैकल्पिक स्वरूप विकसित करने में उनकी सहायता की जाये। यह महज संयोग नहीं है कि यह पहल उसी के समानांतर है जो मित्र शक्तियों ने इससे पूर्व कट्टरपंथी काल्पनिक आन्दोलनों फासीवाद और कम्युनिज्म के सम्बन्ध में पूर्ण की थी।
सबसे पहला दबाव एक विचारधारागत शत्रु को परास्त करने का है। जैसा कि 1945 और 1991 में था कि उद्देश्य समन्वित और आक्रामक विचारधारागत आन्दोलन को अलग थलग और कमजोर करने का हो ताकि यह अनुयायियों को आकर्षित न करे और विश्व व्यवस्था के लिये खतरा न बने। द्वितीय विश्व युद्ध का एक माडल है जो रक्त, इस्पात और अणु बम से जीता गया और वहीं शीत युद्ध की विजय का माडल है जो शक्ति संतुलन, जटिलता और लगभग शांतिपूर्ण रूप से ध्वस्त कर जीता गया।
इस्लामवाद के विरुद्ध विजय सम्भावित रूप से दोनों ही विरासतों को मिलाकर एक अभूतपूर्व परम्परागत युद्ध, आतंकवाद प्रतिरोध, प्रचार का जवाब प्रचार और अन्य रणनीतियों से प्राप्त होगी। एक ओर जहाँ युद्धगत प्रयासों से अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को ह्टाया गया वहीं इसकी भी आवश्यकता है कि उन कानून सम्मत इस्लामवादियों को भी समाप्त किया जाये तो मान्यतापप्राप्त तरीके से शैक्षिक, धार्मिक, मीडिया, विधिक और राजनीतिक क्षेत्रों में कार्यरत हैं।
दूसरे लक्ष्य में उन मुसलमानों की सहायता शामिल है जो इस्लामवादी लक्ष्यों का विरोध करते हैं और इस्लाम को आधुनिक रास्तों से जोड्कर एक विकल्प प्रदान करते हैं। परंतु ऐसे मुसलमान कमजोर हैं और ऐसे अशक्त व्यक्ति हैं जिन्होंने अभी अभी शोध, सम्प्रेषण, संगठन, अर्थ संकलन और जन जागरण आरम्भ किया है।
ऐसा तत्काल और प्रभावी ढंग से करने के लिये आवश्यक है ऐसे नरमपंथियों को गैर मुसलमानों का उत्साह और प्रायोजकता प्राप्त हो। अभी भले वे अप्रभावी हों परंतु ये नरमपंथी पश्चिमी सहयोग से अकेले इस बात की सम्भावना रखते हैं कि इस्लाम को आधुनिक बना दें और इस्लामवाद के खतरे को समाप्त कर दें।
अंतिम विश्लेषण के रूप में इस्लामवाद पश्चिम के समक्ष दो प्रमुख चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रहा है- स्पष्ट रूप से बोलने और विजय का लक्ष्य प्राप्त करने की। यह आधुनिक व्यक्तियों को स्वाभाविक रूप से नहीं मिलेगी जो राजनीतिक रूप से सही होने और संघर्ष के समाधान या फिर तुष्टीकरण में लिप्त हैं। परंतु एक बार इन बाधाओं को पार कर लिया गया तो इस्लामवादी शत्रु की शस्त्रगत, आर्थिक और संसाधनों कमजोरी के चलते इसे परास्त किया जा सकता